कन्नौजी मुक्तक


लेखक - ड़ा प्रखर 

कन्नौजी मुक्तक
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छम छम पैंजनि खनखन कंगन छल छल छलके सिर गागर।
पल पल खटका रह रह झटका ढल ढल ढलके दृग काजर।।
गिन गिन कटती छन छन उठती रीति पलकें मन बेजार
अब तो आओ प्रखर पीर हिय लेत    हिलोरें मन सागर।।
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गीतिका/ग़ज़ल
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                            (1)
धूल धूसरित सच का दर्पण औ ' जैकार झूठ की बातों के।
औरों की क्या कहें मीतवर गहन ज़ख़्म निज घातों के।।
रंगी महफ़िल धूर्त फिजाऐं दौलत के बाजार सजे
छोड़ो जग की रीत बेगानी सौदा करती जज्बातों के।।
शिष्ट नम्रता सदाचार की बातें यार पुरातन अब
बँजी भ्रष्टाचार चरम पर क्या माने भूत हैं लातों के।।
रिश्तों में अपनापन खोया अपने लगे पराए से
बहुत छुपे हिय पृष्ठ अश्रुमय निर्ममु निज आघातों के।।
आज सियासत के चेहरे पर स्याह श्वेत का रंग प्रखर
वंचक गुण्डा तिकडम से यह बिखरे रंग विसातों के।।
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                      (2)
अब संग दिलों से आस कहाँ।
निज संबंधों में सुबास कहाँ।।
मीत हुए दुखों के पतझड अब
वो सुख का प्रिय मधुमास कहाँ।।
कमेच्छा वश  जकडा जीवन
सत बानप्रस्थ वनवास कहाँ।।
जँह दौलत का उल्लू सर बोले तब सहिष्णु दया की आस कहाँ।।
जहाँ रिश्ते तुलते सौदों पर
सच अपनेपन की आस कहाँ।।
ये फूटानी और खून का सौदा
नर्क मिलेगा , आभास  कहाँ।।
हम कितने हो गये आधुनिक
वो श्वान काग गऊ ग्रास कहाँ।।
नियम धर्म में सिर्फ़ प्रदर्शन
अब प्रखर पुरा उपवास कहाँ।।
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डॉ प्रखर दीक्षित
फतेहगढ ,फर्रूखाबाद(उ.प्र.)209601
मोबा.=09044393981

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीया सम्पादक जी नमन

    आपने पत्रिका में रचनाओं को स्थान दिया ।इस हेतु आभार एवं धन्यवाद।

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