लेखक -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
ओ३म्
‘श्रेय मार्ग में प्रवृत्ति व प्रेय मार्ग में निवृत्ति ही मनुष्य का कर्तव्य’
मनुष्य कौन है और मनुष्य किसे कहते हैं? इन प्रश्नों पर मनुष्यों का ध्यान प्रायः नहीं जाता और जीवन पूर्ण होकर मृत्यु तक हो जाती है। बहुत कम संख्या में लोग इस प्रश्न पर यदा कदा कुछ ध्यान देते हैं। विवेकशील मनुष्य इस प्रश्न की उपेक्षा नहीं करते। वह जानते हैं कि प्रश्न है तो उसका समुचित उत्तर भी अवश्य होगा। वह विचार करते हैं, विद्वानों से शंका समाधान करते हैं तथा संबंधित विषय की पुस्तकों को प्राप्त कर उसका अध्ययन कर उसका समाधान पा ही जाते हैं। मनुष्य शब्द में मनु शब्द का महत्व है जो संकेत कर रहा है कि मनन करने का गुण व प्रवृत्ति होने के कारण ही मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है। मनन का अर्थ है कि विवेच्य विषय का ध्यान पूर्वक चिन्तन व सत्य का निर्धारण करना व उस सत्य का पालन करना। अनेक विद्वानों ने इस प्रश्न का मनन किया होगा परन्तु मनुष्य कौन है व इसकी सारगर्भित परिभाषा क्या हो सकती है?, वह ऋषि दयानन्द द्वारा स्वमन्तव्यामन्तव्यों में प्रस्तुत परिभाषा ही युक्तियुक्त प्रतीत होती है। वह लिखते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही है) कि (जो) मननशील हो कर स्वात्मवत् (अपने) व अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हो, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को (मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’ मनुष्य की इस परिभाषा में ऋषि दयानन्द द्वारा समस्त वैदिक ज्ञान का मंथन कर इसे प्रस्तुत किया गया है, ऐसा हमें प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द व हमारे प्राचीन राम, कृष्ण जी आदि सभी ऋषि मुनि व विद्वान ऐसे ही मनुष्य थे। इसी कारण उनका यश आज तक संसार में विद्यमान है। इसके विपरीत जो मनुष्य जीवन व्यतीत कर रहे लोग इसमें न्यूनाधिक आचरण करते हैं वह इस परिभाषा की सीमा तक ही मनुष्य कहे जाते हैं, पूर्ण मनुष्य नहीं। इस परिभाषा में मनुष्य कौन व किसे कहते हैं, प्रश्न का उत्तर आ गया है।
बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है ओर जहा नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है। श्रेय मार्ग ईश्वर की प्राप्ति सहित जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने व उसे सदैव वैसा ही रखने को कहते हैं। जीवात्मा शुद्ध और पवित्र कैसे बनता है और ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जाता है इसके लिए सरल भाषा में पढ़ना हो तो सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर जाना जा सकता है। योग दर्शन को या इसके विद्वानों द्वारा किये गये सरल सुबोध भाष्यों को भी पढ़कर जीवात्मा की उन्नति के साधनों को जाना व समझा जा सकता है। संस्कृत विद्या पढ़कर व वेदाध्ययन कर भी यह कार्य किया जाता था। अब भी ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों द्वारा किये गये वेदभाष्यों को पढ़कर व उसका मनन कर श्रेय मार्ग को जानकर व उस पर चलकर हम सभी मनुष्यजन जीवन को उन्नत व उसके उद्देश्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हंै। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बार बार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि नाना योनियों में जन्म लेकर सुख व दुःख भोगते हुए भटकना पड़ेगा। हमारा यह जन्म भी श्रेय मार्ग पर चलकर जन्म व मरण से अवकाश प्राप्ति का एक अवसर है। हमें श्रेय मार्ग पर चलना था परन्तु हमें इसका ज्ञान ही नहीं मिला तो फिर उस पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः इस महत्वपूर्ण विषय की उपेक्षा न कर इस पर ध्यान देना आवश्यक है। स्वयं ही प्रयत्न कर उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों को जानना है। ऋषि दयानन्द का जीवन यदि पढ़ लेते है तो श्रेय मार्ग का वास्तविक रहस्य ज्ञात हो जाता है। संक्षेप में श्रेय मार्ग ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ध्यान व योग में मन लगाना, ईश्वरोपासनामय जीवन व्यतीत करना, ईश्वर व वेद का प्रचार करना, समाज से अविद्या व अन्धविश्वास को हटाने में प्रयत्न करना, जीवन लोभरहित, अपरिग्रही, धैर्ययुक्त, सन्तोष एवं दूसरों के दुःखों को दूर करने के लिए कार्यरत रहने वाला हो।
प्रेय मार्ग किसे कहते हैं? प्रेय मार्ग का जीवन ईश्वर व जीवात्मा के ज्ञान व वेदों के अध्ययन वा स्वाध्याय मे न्यूनता वाला तथा सांसारिक विषयों में अधिक जुड़ा हुआ होता है। इसमें मनुष्य भौतिक विद्यायों में अधिक रूचि रखता है व उसमें परिग्रह, संग्रह की प्रवृत्ति, भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण व उसमें रमण करने की भावना होती है। जीवन महत्वाकांक्षाओं से भरा होता है जिसमें ईश्वर प्राप्ति व आत्मा को जानकर उसे सभी प्रलोभनों से मुक्त करने का भाव न्यून होता है। आज कल प्रायः सभी लोग इसी प्रकार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भौतिक सामग्री धन, भूमि, भौतिक साधन व स्त्री सुख ही उसमें ध्येय बन जाते हैं। यह पतन का मार्ग है। इनकी साधनों व सुखों की प्राप्ति व उनके भोग द्वारा मनुष्य कर्म-फल के बन्धनों में फंसता व जकड़ा चला जाता है। यह जन्म सुख व दुःख से युक्त व्यतीत होता है तथा परजन्म में इस जन्म के कार्यों के अनुरूप जीवन मिलता है जहां सभी अवशिष्ट कर्मों का भोग करना होता है। यहां हम सुख की भी कुछ चर्चा करना चाहते हैं। भौतिक पदार्थ जैसे धन, सुख की सामग्री भोजन, स्पर्शसुख, नेत्र से सुन्दर चित्रों का अवलोकन, कर्णों से मधुर संगीत व गीतों का श्रवण, कार, बंगला, बैंक बैलेंस व सुख की इतर सभी सामग्री का भोग भौतिक सुखों व प्रेय मार्ग के पथिकों वा मनुष्यों का विषय व लक्ष्य होता है। इनसे क्षणिक सुख ही मिलता है। भोग करने के कुछ ही समय बाद उसका प्रभाव कम हो जाता है और मनुष्य पुनः उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। सुख भोगने से शरीर की शक्ति का अपव्यय भी होता है जिससे शरीर अल्प समय में रोगी व कमजोर हो जाता है और दीर्घायु के स्थान पर अल्पायु का ग्रास बन जाता है। यह प्रेय मार्ग व जीवन प्रशंसनीय नहीं होता। इससे तो मनुष्य में अहंकार की उत्पत्ति होती है। वह दूसरे अल्प साधनों वालों की तुलना में स्वयं अहंमन्य व उत्कृष्ट मानता है परन्तु उसे यह भ्रम रहता है कि यह कम ज्ञान व साधन वाले मनुष्य ही तो उसके सुख की प्राप्ति के साधन व दाता हैं। इस प्रकार प्रेय मार्ग एक प्रकार से कुछ कुछ पशुओं के प्रायः व कुछ कुछ समान है जिसका उद्देश्य कोई बड़ा व महान न होकर केवल अपने व अपने परिवार के सुख तक व अपने इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित रहता है और इसे करते हुए वह कर्म फल बन्धन में फंसता चला जाता है। ऐसे लोगों के जीवन में वास्तविक ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, सद्विद्या के प्रचार में सहयोग, पीड़ितों के प्रति दया व करूणा के भाव नहीं होते। पर्याप्त धन व साधन बैंकों व अन्यत्र पड़े रहते हैं और पीड़ित तरसते रहते हैं। क्या ईश्वर ऐसे लोगों को स्थाई सुख दे सकता है? कदापि नहीं। श्रेय मार्ग में मनुष्यों के भाव अच्छे भाव होते हैं जिनका परिणाम ही जन्म व जन्मान्तर में सुख व उसमें उत्तरोतर वृद्धि के रूप में मिलता है।
हमें श्रेय व प्रेय मार्ग वाले जीवनों में से से किसी एक का चयन करना है। दोनों का सन्तुलन ही सामान्य मनुष्य के लिए उत्तम है। जिनमें इस संसार को जानकर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है वह प्रेय मार्ग को अपनी उन्नति में बाधक मान कर अधिकाधिक श्रेय मार्ग का ही अनुसरण करते हैं अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना, यज्ञ, वेदधर्म प्रचार, परोपकार, वेद विद्या के प्रसार, दुखियों व पीड़ितों की सेवा व उनसे सहयोग, देश व समाज सेवा में ही अपना जीवन खपा देते हैं। ऋषि दयानन्द, उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम जी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी सत्यपति जी और सदगृहस्थियों में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सभी श्रेय और प्रेय मार्ग के पथिकों को महर्षि दयानन्द जी का जीवन चरित और उनका युगान्तरकारी ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इससे कर्तव्य निर्धारण में सहायता मिलेगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्याथी और पं. लेखराम जी आदि सभी महान आत्माओं ने ऐसा ही किया था। आज भी यह सभी याद किये जाते हैं। लेख की समाप्ती से पूर्व हम यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य सबसे अधिक परमात्मा का ऋणी है। यह ऋण वेदाध्ययन से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर व उसकी वैदिक विधि से ही उपासना कर चुकाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम मनुष्य कहलाने लायक नहीं होंगे। अतः ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के ज्ञान के लिए वेदों का अध्ययन कर व अपने मुख्य कर्तव्य ईश्वरोपासना, जनसेवा व परोपकार के लिए हमें अपने श्रेय कर्तव्यों का अवश्य ही पालन करना चाहिये। इसी में हमारी, देश व समाज की भलाई है। यह भी लिख देते हैं कि सद्ज्ञान व धन इन दोंनों में अधिक सुख सद्ज्ञानी को ही होता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘ईश्वर-जीवात्मा का परस्पर संबंध और ईश्वर के प्रति मनुष्य का कर्तव्य’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
मनुष्य जानता है कि वह एक चेतन सत्ता है। जीवित अवस्था में चेतन सत्ता जीवात्मा शरीर में विद्यमान रहती है। मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है। जीवात्मा का शरीर में रहना जीवन और उसका शरीर से निकल जाना ही मृत्यु कहलाता है। किसी ने न तो जीवात्मा को देखा है और न परमात्मा को। इसका कारण एक ही हो सकता है कि हम बहुत सूक्ष्म व बहुत विशाल चीजों को देख नहीं पाते। जीवात्मा का दिखाई न देने का कारण इसका अत्यन्त सूक्ष्म होना ही है। ईश्वर इससे भी सूक्ष्म व सर्वव्यापक अर्थात् सर्वत्र विद्यमान होने से सबसे बड़ा है, इसलिये यह दोनों दिखाई नही देते। आंखों से दिखने वाली वस्तुओं का ही अस्तित्व नहीं होता। संसार में ऐसे अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनकी विद्यमानता सिद्ध होने पर भी वह दिखाई नहीं देते। हमने आक्सीजन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन आदि अनेक गैसों के नाम सुन रखे हैं। विज्ञान की दृष्टि से इनकी सत्ता सिद्ध है। हम जो श्वांस लेते हैं उसमें आक्सीजन गैस प्रमुख रूप से होती हैं। क्या हम प्राणवायु आक्सीजन जिसका चैबीस घंटे सेवन करते हैं देख पाते हैं? उत्तर है कि नहीं देख पाते। अतः जीवात्मा और ईश्वर भी अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देते परन्तु इनका अस्तित्व सिद्ध है। कारण की शरीर की क्रियायें जीवात्मा के अस्तित्व का प्रमाण हैं। शरीर में क्रिया है तो शरीर में जीवात्मा अवश्य है। यदि शरीर में क्रियायें होना समाप्त हो जायें तो वह जीवित नहीं मृतक शरीर होता है। किसी भी जड़ पदार्थ में सोची समझी अर्थात् ज्ञानपूर्वक क्रियाये स्वतः नहीं होती। जहां ज्ञानपूर्वक कार्य व क्रियायें होती हैं, वहां कर्ता, कोई चेतन तत्व का होना सिद्ध होता है। मनुष्य के कार्यों और ईश्वर की जगत की उत्पत्ति, स्थिति व पालन को देखकर व जानकर जीवात्मा व ईश्वर दोनों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
ईश्वर व जीवात्मा के संबंध पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ ईश्वर का यह स्वरूप जगत वा सृष्टि में विद्यमान है जिसे विवेक बुद्धि से जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ ईश्वर सत्य, चेतन तत्व व आनन्द से युक्त सत्ता है। यह जगत ईश्वर के सत्य होने का प्रमाण है क्योंकि पांचों ज्ञानेन्द्रियों से यह अनुभूति में आता है। जगत का कत्र्ता वही एकमात्र ईश्वर है क्योंकि चेतन तत्व में ही ज्ञान व तदनुरूप क्रिया होती है। यह सृष्टि भी ज्ञान व क्रिया की पराकाष्ठा है इससे भी ईश्वर चेतन तत्व व सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। ईश्वर स्वभाव से आनन्द से युक्त है। हर क्षण व हर पल वह आनन्द से युक्त रहता है। यदि ऐसा न होता तो वह सृष्टि नहीं बना सकता था और न हि अन्य ईश्वरीय कार्य, सृष्टि का पालन, जीवों के सुख-दुःख रूपी भोगों की व्यवस्था आदि कार्य कर सकता था। इसी प्रकार से ईश्वर के विषय में जो बातें कही हैं वह जानी व समझी जा सकती है। यही ईश्वर का सत्य स्वरूप है।
जीवात्मा के स्वरूप पर विचार करें तो हमें मनुष्य के शरीर व अन्य पशु, पक्षी आदि के शरीरों को अपनी दृष्टि में रखना पड़ता है। विचार करने पर पता चलता है कि जीवात्मा सत्य, चित्त वा चेतन पदार्थ, एकदेशी न कि सर्वव्यापक, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, अल्प शक्तिवाला, अनादि, उत्पत्ति के कारण से रहित, नित्य, अमर व अविनाशी, अजर, शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता, अग्नि में जल कर नष्ट नहीं होता, वायु इसे सुखा नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता, जन्म व मरण धर्मा, अज्ञान अवस्था में दुःखों से युक्त व ज्ञान प्राप्त कर सुखी होने वाला आदि अनेकानेक गुणों से युक्त होता है। जीवात्मा संख्या की दृष्टि से विश्व व ब्रह्माण्ड में अनन्त हैं। इनके लिए ही ईश्वर ने संसार की रचना की व सभी जीवों को उनके प्रारब्ध व पूर्व जन्मों के अभुक्त कर्मों के आधार पर शरीर प्रदान किये हैं। यह शरीर ईश्वर ने पुराने कर्मों को भोगने के लिए दिए हैं। मनुष्य जीवन का यह विशेष गुण है कि यह उभय योनि हैं जबकि अन्य सभी भोग योनियां ही हैं। मनुष्य योनि में शरीरस्थ जीवात्मा प्रारब्ध के अनुसार पूर्व कर्मों को भोगता भी है और नये कर्मों को करता भी है। यह नये कर्म ही उसके पुनर्जन्म का आधार होते हैं।
मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए शिक्षा व ज्ञान चाहिये। यह उसे ईश्वर ने प्रदान किया हुआ है। वह ज्ञान वेद है जो सृष्टि के आदि में दिया गया था। इस ज्ञान का प्रचार व प्रसार एवं रक्षा सृष्टि की आदि से सभी ऋषि मुनि व सच्चे ब्राह्मण करते आये हैं। आज भी हमारे कर्तव्याकर्तव्य का द्योतक वा मार्गदर्शक वेद व वैदिक साहित्य ही है। मनुष्य व अन्य प्राणधारी जो भोजन आदि करते हैं वह सब भी सृष्टि में ईश्वर द्वारा प्रदान करायें गये हैं। इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों पर विचार कर भी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सभी मनुष्य व प्राणी ईश्वर के ऋणी हैं। जीव ईश्वर का ऋण चुकायंे, इसका ईश्वर से कोई आदेश नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक मनुष्य सच्चा मनुष्य बने। वह ईश्वर भक्त हो, देश भक्त, मातृ-पितृ भक्त हो, गुरु व आचार्य भक्त हो, ज्ञान अर्जित कर शुभ कर्म करने वाला हो, शाकाहारी हो, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला व उनका रक्षक हो आदि। ईश्वर सभी मनुष्यों को ऐसा ही देखना चाहता है। यह वेदों में मनुष्यों के लिए ईश्वर प्रदत्त शिक्षा है। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करेगा तो वह उसका अशुभ कर्म होने के कारण ईश्वरीय व्यवस्था से दण्डनीय हो सकता है।
ईश्वर जीवात्माओं पर उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार एक न्यायाधीश की तरह न्याय करता है और उसे मनुष्यादि जन्म देता है। इस कारण वह सभी जीवों का माता व पिता दोनों है। ईश्वर ने हमें वेद ज्ञान दिया है और जब भी हम कोई अच्छा व बुरा काम करते हैं तो हमारी आत्मा में अच्छे काम करने पर प्रसन्नता व बुरे काम करने पर भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करता है। यह ईश्वर ही करता है जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। इससे ईश्वर हमारा गुरु व आचार्य सिद्ध होता है। वेद मन्त्रों में ईश्वर को मित्र व सखा भी कहा गया है। ईश्वर दयालु व धर्मात्मा है। धर्मात्मा सबका मित्र होता है। अतः ईश्वर भी हमारा मित्र व सखा है। मित्र का गुण बुरे समय में मित्र की सहायता व सहयोग करना होता है। ईश्वर भी हर क्षण, यहां तक की पूरे जीवनकाल में व मृत्युकाल के बाद व नये जन्म से पूर्व तक भी, हमारे साथ रहता है व हमें दुःखों से दूर रखने के साथ हमें दुःखों से बचाता भी है, इसी लिए वह हमारा सच्चा व सनातन मित्र है। ईश्वर हमारा स्वामी व राजा भी है। यह भी कह सकते हैं कि वह सब स्वामियों का स्वामी, सब गुरुओं का गुरु, सब राजाओं का भी राजा, न्यायाधीशों का भी न्यायाधीश है। यह सब व ऐसे अनेक संबंध हमारे ईश्वर के साथ है। हम यदि चाहें व ईश्वर भी चाहें तो भी यह सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो सकते, सदा सदा बने ही रहेंगे। अतः प्रश्न उठता है कि इस स्थिति में ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है?
ईश्वर के प्रति जीवात्मा का वही सम्बन्ध है जो पुत्र का माता व पिता, मित्र का मित्र के प्रति, शिष्य का गुरु व आचार्य के प्रति व भक्त का भगवान के प्रति होता है। भक्त भक्ति करने वाले को कहते हैं। भक्ति भगवान के गुणों को जानकर उसके अनुरूप स्वयं को बनाने, ढालने वा उन गुणों को धारण करने को कहते हैं। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर और जीवात्मा का व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक, गुरु-शिष्य, उपास्य-उपासक का सम्बन्ध है। जीवात्मा को ओ३म् का जप, गायत्री मन्त्र का जप सहित ईश्वर का अधिक से अधिक समय तक ध्यान व उपासना करना होता है। ध्यान व उपासना में जीवात्मा ईश्वर के साथ जुड़ जाता है जिससे लाभ यह होता है कि व्यापक-व्याप्य संबंध रखने वाले ईश्वर-जीवात्मा की संगति से जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर जैसे बनने आरम्भ हो जाते हैं। जीवात्मा दुरितों वा असत्य को छोड़ कर भद्र वा सत्य को धारण करता है। वह ईश्वर की उपासना को अपना नित्य कर्तव्य मानता है व करता भी है। वह परोपकार, दीन- दुखियों की सेवा, दान, वेद प्रचार आदि कार्यों को करता है। यही मनुष्य के कर्तव्य हैं। वेदों का स्वाध्याय करना भी सभी मनुष्य का कर्तव्य वा परम धर्म है। वेदों के स्वाध्याय करने से सत्य कर्तव्यों के पालन करने की शिक्षा व बल मिलता है। यह सब अनुभूति के विषय हैं जिसे स्वयं करके ही जाना जा सकता है। आईये ! प्रतिदिन वेद व वैदिक साहित्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय के व्रत सहित ईश्वर के ध्यान व दैनिक अग्निहोत्र का व्रत लें, अन्य दैनिक यज्ञों को भी करें और जीवन को सफल करें अर्थात् मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़े। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘आर्यसमाज वजीरपुर दिल्ली द्वारा सम्मानित किए जाने के लिए आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान नेता श्री धर्मपाल आर्य जी को बधाई’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
30 अप्रैल, 2017 को आर्यसमाज वजीरपुर, जेजे कालोनी के स्वर्ण जयन्ती समारोह के अवसर पर श्री धर्मपाल जी को सपत्नीक सम्मानित किया गया है। आज कुछ समय पूर्वयह जानकारी पाकर हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई। यह सम्मान श्री धर्मपाल जी आर्य को तो है ही, हमें लगता है कि इसका श्रेय उनके ऋषिभक्त पूज्य पिता लाला दीपचन्द आर्य जी और माता बालमति आर्या जी को भी जाता है। इन आर्य माता-पिता से प्राप्त संस्कारों के कारण ही श्री धर्मपाल जी आर्य की गुरुकुल झज्जर में प्रसिद्ध विद्वानों के आचार्यत्व में शिक्षा दीक्षा हुई। इस शिक्षा के परिणाम से वह संस्कृत के विद्वान बनने के साथ ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के समस्त परम्पराओं से भी परिचित हुए। ऋषिभक्त लाला दीपचन्द जी आर्य ने ऋषि दयानन्द और आर्ष ग्रन्थों के प्रचार प्रसार का अति प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका यश अमर व अक्षुण है। आपने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की स्थापना कर उसके माध्यम से अनेक दुर्लभ एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों का लागत से भी कम मूल्य पर भव्य एव आकर्षक आकार प्रकार में प्रकाशन किया। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की स्थापना वर्ष 1966 में हुई थी। हम सन् 1970 व उसके कुछ बाद ही इस ट्रस्ट की मासिक पत्रिका दयानन्द सन्देश से जुड़ गये थे। सन् 1974 के मई महीने में दिल्ली जाकर माता बालमति आर्या और लाला दीपचन्द आर्य जी से पहली बार मिले थे। पं. राजवीर शास्त्री न्यास की पत्रिका दयानन्द सन्देश का उत्तम सम्पादन करते थे। उनके लेख पढ़कर पाठक उनकी ऋषि भक्ति के सम्मुख नतमस्तक हो जाते थे। आपने आर्यसमाज को नये नये विषयों के महत्वपवूर्ण विशेषांक देकर आर्य साहित्य को समृद्ध किया है। वैदिक मनोविज्ञान, जीवात्म ज्योति, विषय सूची, सृष्टि संवत् तथा वेदार्थ समीक्षा विशेषांक और ऐसे अनेक महत्ववपूर्ण व शोध पूर्ण विशेषांक वा ग्रन्थ आपकी लेखनी से निःसृत होकर आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित हुए हैं। अब हम इनके नये संस्करणों की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब कि किसी प्रकाशक व आर्य नेताओं की इन पर दृष्टि पड़े और इनका कल्याण हो।
श्री धर्मपाल आर्य जी आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के यशस्वी प्रधान हैं। समय समय पर इस प्रकाशन से आर्य जगत को अनेक नये ग्रन्थों का उपहार मिलता आ रहा है। आर्यसमाज नया बांस खारी बावरी के बिलकुल समीप है। लाला दीपचन्द आर्य जी और श्री धर्मपाल आर्य जी इसी समाज से जुड़े हैं और इसके मुख्य अधिकारी रहते आ रहे हैं। सन् 1875 में दिल्ली में आर्यसमाज की शताब्दी मनाई गई थी। हम भी इस समारोह में सम्मिलित हुए थे। इस अवसर पर आर्यसमाज नयाबांस की ओर पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी का सामवेद भाष्य प्रकाशित कर बहुत अल्प मूल्य पर वितरित किया था। मूल्य सम्भवतः 16 रूपये था। हमें स्मरण है कि बहुत लोगों ने यह सामवेद भाष्य खरीदा था। हमारे पास भी यह संस्करण था जिसे बाद में हमने अपने किसी मित्र को भेंट कर दिया था। अब हमारे पास इसका नया भव्य संस्करण है। इस समय हमारी स्मृति में आ रहा है कि आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली से ऋषि की आद्य जीवनी ‘दयानन्द दिग्विजयार्क’, यजुर्वेद भाष्य भाष्कर व यजुर्वेद भाष्य भाष्कर भाषानुवाद टीकायें, उपदेशमंजरी का विस्तृत विषय सूची सहित एक उपयोगी भव्य संस्करण, ऋग्वेद भाष्य भाष्कर टीका के कुछ भाग, मनुस्मृति व विशुद्ध मनुस्मृति के अनेक संस्करण, तीन वृहत् खण्डों में वेदार्थ कल्पद्रुम, वैदिक कोष आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। पं. लेखराम रचित ऋषि का वृहद जीवन चरित्र आर्य साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों में है। इसका प्रकाशन भी ट्रस्ट की ओर से होता आया है। अब यह संस्करण सम्भवतः समाप्त हो गया है। हम आशा करते हैं कि शीघ्र ही इसके प्रकाशन की व्यवस्था भी होगी। अजमेर में आयोजित ऋषि निर्वाणोत्सव के अवसर पर दयानन्द ग्रन्थमाला का प्रकाशन सहित दीर्घकाल से सत्यार्थ प्रकाश के विभिन्न भव्य संस्करणों एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय व दयानन्द लघु ग्रन्थ संग्रह आदि ग्रन्थों का प्रकाशन भी ट्रस्ट से हो चुका है व कुछ का अब भी हो रहा है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कार विधि के आरम्भिक प्रामाणिक संस्करणों की फोटो प्रतियां भी पुस्तक रूप में ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित की गई थी जिसका उद्देश्य मूल ग्रन्थों का संरक्षण एवं इन ग्रन्थों में पाठ परिवर्तनों को रोकना था। इन्हीं के आधार पर अब इन ग्रन्थों का प्रकाशन किया जाता है। हमें यह लिखने में भी प्रसन्नता एवं गौरव अनुभव होता है कि आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली ने सत्यार्थ प्रकाश का लगभग 13 लाख की संख्या में प्रकाशन कर पुण्य अर्जित किया है और ऋषि मिशन की प्रशंसनीय सेवा की है। यह भी बता दें कि एक ओर जहां इन ऋषि ग्रन्थों का भव्य प्रकाशन हुआ है वहीं ट्रस्ट द्वारा इनका मूल्य भी बहुत अल्प रखा गया है। इस गुण ने ही आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने आर्यजगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।
हमारा सौभाग्य है कि हमें लाला दीपचन्द आर्य जी व माता बालमति आर्या जी के दर्शन करने व उनसे वार्तालाप का अवसर मिला है। आर्यजगत की इन महान् हस्तियों से भेंट में हमें जो स्नेह मिला उसने हमारे मन पर एक विशेष सात्विक छाप बनाई हुई है। हमें कोई पूछे कि आदर्श आर्य कैसे होते हैं, तो हम इन्हीं की ओर संकेत करेंगे। माता-पिता के गुणों से परिपूर्ण श्री धर्मपाल आर्य जी आर्यसमाज सहित दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा और आर्यसमाज के अनेक कार्यों से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। हमें स्मरण है कि जब जयपुर में महाराज मनु की प्रतिमा को उच्च न्यायालय परिसर से हटाने का आदेश हुआ था तो श्री धर्मपाल जी ने ही स्टे आर्डर लिया था और मुकदमें में बहस के लिए स्वयं ही पहुंचते थे। ऐसे अनेक कार्यों के लिए आप आर्यजगत के पूज्य हैं। हमें विश्वास है कि आप भविष्य में भी इन सभी कार्यों को जारी रखेंगे। हम समझते हैं कि आप जो सामाजिक व सार्वजनिक जीवन में कार्य कर रहे हैं उससे अच्छे कार्य और कुछ नहीं हो सकते। आप इन कार्यों को करते रहें। हम आपकी सफलता की कामना करते हैं। ईश्वर आपको स्वस्थ रखें। आपकी सार्वत्रिक उन्नति हो। आर्यसमाज वजीरपुर जेजे कालोनी में हुए सम्मान के लिए हम आपको और आपके पूरे परिवार को पुनः पुनः हार्दिक बधाई देते हैं। ओ३म् शम्।
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-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘श्रेय मार्ग में प्रवृत्ति व प्रेय मार्ग में निवृत्ति ही मनुष्य का कर्तव्य’
मनुष्य कौन है और मनुष्य किसे कहते हैं? इन प्रश्नों पर मनुष्यों का ध्यान प्रायः नहीं जाता और जीवन पूर्ण होकर मृत्यु तक हो जाती है। बहुत कम संख्या में लोग इस प्रश्न पर यदा कदा कुछ ध्यान देते हैं। विवेकशील मनुष्य इस प्रश्न की उपेक्षा नहीं करते। वह जानते हैं कि प्रश्न है तो उसका समुचित उत्तर भी अवश्य होगा। वह विचार करते हैं, विद्वानों से शंका समाधान करते हैं तथा संबंधित विषय की पुस्तकों को प्राप्त कर उसका अध्ययन कर उसका समाधान पा ही जाते हैं। मनुष्य शब्द में मनु शब्द का महत्व है जो संकेत कर रहा है कि मनन करने का गुण व प्रवृत्ति होने के कारण ही मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है। मनन का अर्थ है कि विवेच्य विषय का ध्यान पूर्वक चिन्तन व सत्य का निर्धारण करना व उस सत्य का पालन करना। अनेक विद्वानों ने इस प्रश्न का मनन किया होगा परन्तु मनुष्य कौन है व इसकी सारगर्भित परिभाषा क्या हो सकती है?, वह ऋषि दयानन्द द्वारा स्वमन्तव्यामन्तव्यों में प्रस्तुत परिभाषा ही युक्तियुक्त प्रतीत होती है। वह लिखते हैं कि ‘मनुष्य उसी को कहना (अर्थात् मनुष्य वही है) कि (जो) मननशील हो कर स्वात्मवत् (अपने) व अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामथ्र्य से धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हो, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को (मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे।’ मनुष्य की इस परिभाषा में ऋषि दयानन्द द्वारा समस्त वैदिक ज्ञान का मंथन कर इसे प्रस्तुत किया गया है, ऐसा हमें प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द व हमारे प्राचीन राम, कृष्ण जी आदि सभी ऋषि मुनि व विद्वान ऐसे ही मनुष्य थे। इसी कारण उनका यश आज तक संसार में विद्यमान है। इसके विपरीत जो मनुष्य जीवन व्यतीत कर रहे लोग इसमें न्यूनाधिक आचरण करते हैं वह इस परिभाषा की सीमा तक ही मनुष्य कहे जाते हैं, पूर्ण मनुष्य नहीं। इस परिभाषा में मनुष्य कौन व किसे कहते हैं, प्रश्न का उत्तर आ गया है।
बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है ओर जहा नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है। श्रेय मार्ग ईश्वर की प्राप्ति सहित जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने व उसे सदैव वैसा ही रखने को कहते हैं। जीवात्मा शुद्ध और पवित्र कैसे बनता है और ईश्वर को कैसे प्राप्त किया जाता है इसके लिए सरल भाषा में पढ़ना हो तो सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर जाना जा सकता है। योग दर्शन को या इसके विद्वानों द्वारा किये गये सरल सुबोध भाष्यों को भी पढ़कर जीवात्मा की उन्नति के साधनों को जाना व समझा जा सकता है। संस्कृत विद्या पढ़कर व वेदाध्ययन कर भी यह कार्य किया जाता था। अब भी ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों द्वारा किये गये वेदभाष्यों को पढ़कर व उसका मनन कर श्रेय मार्ग को जानकर व उस पर चलकर हम सभी मनुष्यजन जीवन को उन्नत व उसके उद्देश्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष’ को प्राप्त कर सकते हंै। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो बार बार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि नाना योनियों में जन्म लेकर सुख व दुःख भोगते हुए भटकना पड़ेगा। हमारा यह जन्म भी श्रेय मार्ग पर चलकर जन्म व मरण से अवकाश प्राप्ति का एक अवसर है। हमें श्रेय मार्ग पर चलना था परन्तु हमें इसका ज्ञान ही नहीं मिला तो फिर उस पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः इस महत्वपूर्ण विषय की उपेक्षा न कर इस पर ध्यान देना आवश्यक है। स्वयं ही प्रयत्न कर उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों को जानना है। ऋषि दयानन्द का जीवन यदि पढ़ लेते है तो श्रेय मार्ग का वास्तविक रहस्य ज्ञात हो जाता है। संक्षेप में श्रेय मार्ग ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ध्यान व योग में मन लगाना, ईश्वरोपासनामय जीवन व्यतीत करना, ईश्वर व वेद का प्रचार करना, समाज से अविद्या व अन्धविश्वास को हटाने में प्रयत्न करना, जीवन लोभरहित, अपरिग्रही, धैर्ययुक्त, सन्तोष एवं दूसरों के दुःखों को दूर करने के लिए कार्यरत रहने वाला हो।
प्रेय मार्ग किसे कहते हैं? प्रेय मार्ग का जीवन ईश्वर व जीवात्मा के ज्ञान व वेदों के अध्ययन वा स्वाध्याय मे न्यूनता वाला तथा सांसारिक विषयों में अधिक जुड़ा हुआ होता है। इसमें मनुष्य भौतिक विद्यायों में अधिक रूचि रखता है व उसमें परिग्रह, संग्रह की प्रवृत्ति, भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण व उसमें रमण करने की भावना होती है। जीवन महत्वाकांक्षाओं से भरा होता है जिसमें ईश्वर प्राप्ति व आत्मा को जानकर उसे सभी प्रलोभनों से मुक्त करने का भाव न्यून होता है। आज कल प्रायः सभी लोग इसी प्रकार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भौतिक सामग्री धन, भूमि, भौतिक साधन व स्त्री सुख ही उसमें ध्येय बन जाते हैं। यह पतन का मार्ग है। इनकी साधनों व सुखों की प्राप्ति व उनके भोग द्वारा मनुष्य कर्म-फल के बन्धनों में फंसता व जकड़ा चला जाता है। यह जन्म सुख व दुःख से युक्त व्यतीत होता है तथा परजन्म में इस जन्म के कार्यों के अनुरूप जीवन मिलता है जहां सभी अवशिष्ट कर्मों का भोग करना होता है। यहां हम सुख की भी कुछ चर्चा करना चाहते हैं। भौतिक पदार्थ जैसे धन, सुख की सामग्री भोजन, स्पर्शसुख, नेत्र से सुन्दर चित्रों का अवलोकन, कर्णों से मधुर संगीत व गीतों का श्रवण, कार, बंगला, बैंक बैलेंस व सुख की इतर सभी सामग्री का भोग भौतिक सुखों व प्रेय मार्ग के पथिकों वा मनुष्यों का विषय व लक्ष्य होता है। इनसे क्षणिक सुख ही मिलता है। भोग करने के कुछ ही समय बाद उसका प्रभाव कम हो जाता है और मनुष्य पुनः उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करता है। सुख भोगने से शरीर की शक्ति का अपव्यय भी होता है जिससे शरीर अल्प समय में रोगी व कमजोर हो जाता है और दीर्घायु के स्थान पर अल्पायु का ग्रास बन जाता है। यह प्रेय मार्ग व जीवन प्रशंसनीय नहीं होता। इससे तो मनुष्य में अहंकार की उत्पत्ति होती है। वह दूसरे अल्प साधनों वालों की तुलना में स्वयं अहंमन्य व उत्कृष्ट मानता है परन्तु उसे यह भ्रम रहता है कि यह कम ज्ञान व साधन वाले मनुष्य ही तो उसके सुख की प्राप्ति के साधन व दाता हैं। इस प्रकार प्रेय मार्ग एक प्रकार से कुछ कुछ पशुओं के प्रायः व कुछ कुछ समान है जिसका उद्देश्य कोई बड़ा व महान न होकर केवल अपने व अपने परिवार के सुख तक व अपने इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित रहता है और इसे करते हुए वह कर्म फल बन्धन में फंसता चला जाता है। ऐसे लोगों के जीवन में वास्तविक ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, सद्विद्या के प्रचार में सहयोग, पीड़ितों के प्रति दया व करूणा के भाव नहीं होते। पर्याप्त धन व साधन बैंकों व अन्यत्र पड़े रहते हैं और पीड़ित तरसते रहते हैं। क्या ईश्वर ऐसे लोगों को स्थाई सुख दे सकता है? कदापि नहीं। श्रेय मार्ग में मनुष्यों के भाव अच्छे भाव होते हैं जिनका परिणाम ही जन्म व जन्मान्तर में सुख व उसमें उत्तरोतर वृद्धि के रूप में मिलता है।
हमें श्रेय व प्रेय मार्ग वाले जीवनों में से से किसी एक का चयन करना है। दोनों का सन्तुलन ही सामान्य मनुष्य के लिए उत्तम है। जिनमें इस संसार को जानकर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है वह प्रेय मार्ग को अपनी उन्नति में बाधक मान कर अधिकाधिक श्रेय मार्ग का ही अनुसरण करते हैं अर्थात् ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना, यज्ञ, वेदधर्म प्रचार, परोपकार, वेद विद्या के प्रसार, दुखियों व पीड़ितों की सेवा व उनसे सहयोग, देश व समाज सेवा में ही अपना जीवन खपा देते हैं। ऋषि दयानन्द, उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम जी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी सत्यपति जी और सदगृहस्थियों में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सभी श्रेय और प्रेय मार्ग के पथिकों को महर्षि दयानन्द जी का जीवन चरित और उनका युगान्तरकारी ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इससे कर्तव्य निर्धारण में सहायता मिलेगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्याथी और पं. लेखराम जी आदि सभी महान आत्माओं ने ऐसा ही किया था। आज भी यह सभी याद किये जाते हैं। लेख की समाप्ती से पूर्व हम यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य सबसे अधिक परमात्मा का ऋणी है। यह ऋण वेदाध्ययन से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर व उसकी वैदिक विधि से ही उपासना कर चुकाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम मनुष्य कहलाने लायक नहीं होंगे। अतः ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के ज्ञान के लिए वेदों का अध्ययन कर व अपने मुख्य कर्तव्य ईश्वरोपासना, जनसेवा व परोपकार के लिए हमें अपने श्रेय कर्तव्यों का अवश्य ही पालन करना चाहिये। इसी में हमारी, देश व समाज की भलाई है। यह भी लिख देते हैं कि सद्ज्ञान व धन इन दोंनों में अधिक सुख सद्ज्ञानी को ही होता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘ईश्वर-जीवात्मा का परस्पर संबंध और ईश्वर के प्रति मनुष्य का कर्तव्य’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
मनुष्य जानता है कि वह एक चेतन सत्ता है। जीवित अवस्था में चेतन सत्ता जीवात्मा शरीर में विद्यमान रहती है। मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है। जीवात्मा का शरीर में रहना जीवन और उसका शरीर से निकल जाना ही मृत्यु कहलाता है। किसी ने न तो जीवात्मा को देखा है और न परमात्मा को। इसका कारण एक ही हो सकता है कि हम बहुत सूक्ष्म व बहुत विशाल चीजों को देख नहीं पाते। जीवात्मा का दिखाई न देने का कारण इसका अत्यन्त सूक्ष्म होना ही है। ईश्वर इससे भी सूक्ष्म व सर्वव्यापक अर्थात् सर्वत्र विद्यमान होने से सबसे बड़ा है, इसलिये यह दोनों दिखाई नही देते। आंखों से दिखने वाली वस्तुओं का ही अस्तित्व नहीं होता। संसार में ऐसे अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनकी विद्यमानता सिद्ध होने पर भी वह दिखाई नहीं देते। हमने आक्सीजन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन आदि अनेक गैसों के नाम सुन रखे हैं। विज्ञान की दृष्टि से इनकी सत्ता सिद्ध है। हम जो श्वांस लेते हैं उसमें आक्सीजन गैस प्रमुख रूप से होती हैं। क्या हम प्राणवायु आक्सीजन जिसका चैबीस घंटे सेवन करते हैं देख पाते हैं? उत्तर है कि नहीं देख पाते। अतः जीवात्मा और ईश्वर भी अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देते परन्तु इनका अस्तित्व सिद्ध है। कारण की शरीर की क्रियायें जीवात्मा के अस्तित्व का प्रमाण हैं। शरीर में क्रिया है तो शरीर में जीवात्मा अवश्य है। यदि शरीर में क्रियायें होना समाप्त हो जायें तो वह जीवित नहीं मृतक शरीर होता है। किसी भी जड़ पदार्थ में सोची समझी अर्थात् ज्ञानपूर्वक क्रियाये स्वतः नहीं होती। जहां ज्ञानपूर्वक कार्य व क्रियायें होती हैं, वहां कर्ता, कोई चेतन तत्व का होना सिद्ध होता है। मनुष्य के कार्यों और ईश्वर की जगत की उत्पत्ति, स्थिति व पालन को देखकर व जानकर जीवात्मा व ईश्वर दोनों का अस्तित्व सिद्ध होता है।
ईश्वर व जीवात्मा के संबंध पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ ईश्वर का यह स्वरूप जगत वा सृष्टि में विद्यमान है जिसे विवेक बुद्धि से जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ ईश्वर सत्य, चेतन तत्व व आनन्द से युक्त सत्ता है। यह जगत ईश्वर के सत्य होने का प्रमाण है क्योंकि पांचों ज्ञानेन्द्रियों से यह अनुभूति में आता है। जगत का कत्र्ता वही एकमात्र ईश्वर है क्योंकि चेतन तत्व में ही ज्ञान व तदनुरूप क्रिया होती है। यह सृष्टि भी ज्ञान व क्रिया की पराकाष्ठा है इससे भी ईश्वर चेतन तत्व व सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। ईश्वर स्वभाव से आनन्द से युक्त है। हर क्षण व हर पल वह आनन्द से युक्त रहता है। यदि ऐसा न होता तो वह सृष्टि नहीं बना सकता था और न हि अन्य ईश्वरीय कार्य, सृष्टि का पालन, जीवों के सुख-दुःख रूपी भोगों की व्यवस्था आदि कार्य कर सकता था। इसी प्रकार से ईश्वर के विषय में जो बातें कही हैं वह जानी व समझी जा सकती है। यही ईश्वर का सत्य स्वरूप है।
जीवात्मा के स्वरूप पर विचार करें तो हमें मनुष्य के शरीर व अन्य पशु, पक्षी आदि के शरीरों को अपनी दृष्टि में रखना पड़ता है। विचार करने पर पता चलता है कि जीवात्मा सत्य, चित्त वा चेतन पदार्थ, एकदेशी न कि सर्वव्यापक, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, अल्प शक्तिवाला, अनादि, उत्पत्ति के कारण से रहित, नित्य, अमर व अविनाशी, अजर, शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता, अग्नि में जल कर नष्ट नहीं होता, वायु इसे सुखा नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता, जन्म व मरण धर्मा, अज्ञान अवस्था में दुःखों से युक्त व ज्ञान प्राप्त कर सुखी होने वाला आदि अनेकानेक गुणों से युक्त होता है। जीवात्मा संख्या की दृष्टि से विश्व व ब्रह्माण्ड में अनन्त हैं। इनके लिए ही ईश्वर ने संसार की रचना की व सभी जीवों को उनके प्रारब्ध व पूर्व जन्मों के अभुक्त कर्मों के आधार पर शरीर प्रदान किये हैं। यह शरीर ईश्वर ने पुराने कर्मों को भोगने के लिए दिए हैं। मनुष्य जीवन का यह विशेष गुण है कि यह उभय योनि हैं जबकि अन्य सभी भोग योनियां ही हैं। मनुष्य योनि में शरीरस्थ जीवात्मा प्रारब्ध के अनुसार पूर्व कर्मों को भोगता भी है और नये कर्मों को करता भी है। यह नये कर्म ही उसके पुनर्जन्म का आधार होते हैं।
मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए शिक्षा व ज्ञान चाहिये। यह उसे ईश्वर ने प्रदान किया हुआ है। वह ज्ञान वेद है जो सृष्टि के आदि में दिया गया था। इस ज्ञान का प्रचार व प्रसार एवं रक्षा सृष्टि की आदि से सभी ऋषि मुनि व सच्चे ब्राह्मण करते आये हैं। आज भी हमारे कर्तव्याकर्तव्य का द्योतक वा मार्गदर्शक वेद व वैदिक साहित्य ही है। मनुष्य व अन्य प्राणधारी जो भोजन आदि करते हैं वह सब भी सृष्टि में ईश्वर द्वारा प्रदान करायें गये हैं। इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों पर विचार कर भी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सभी मनुष्य व प्राणी ईश्वर के ऋणी हैं। जीव ईश्वर का ऋण चुकायंे, इसका ईश्वर से कोई आदेश नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक मनुष्य सच्चा मनुष्य बने। वह ईश्वर भक्त हो, देश भक्त, मातृ-पितृ भक्त हो, गुरु व आचार्य भक्त हो, ज्ञान अर्जित कर शुभ कर्म करने वाला हो, शाकाहारी हो, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला व उनका रक्षक हो आदि। ईश्वर सभी मनुष्यों को ऐसा ही देखना चाहता है। यह वेदों में मनुष्यों के लिए ईश्वर प्रदत्त शिक्षा है। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करेगा तो वह उसका अशुभ कर्म होने के कारण ईश्वरीय व्यवस्था से दण्डनीय हो सकता है।
ईश्वर जीवात्माओं पर उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार एक न्यायाधीश की तरह न्याय करता है और उसे मनुष्यादि जन्म देता है। इस कारण वह सभी जीवों का माता व पिता दोनों है। ईश्वर ने हमें वेद ज्ञान दिया है और जब भी हम कोई अच्छा व बुरा काम करते हैं तो हमारी आत्मा में अच्छे काम करने पर प्रसन्नता व बुरे काम करने पर भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करता है। यह ईश्वर ही करता है जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। इससे ईश्वर हमारा गुरु व आचार्य सिद्ध होता है। वेद मन्त्रों में ईश्वर को मित्र व सखा भी कहा गया है। ईश्वर दयालु व धर्मात्मा है। धर्मात्मा सबका मित्र होता है। अतः ईश्वर भी हमारा मित्र व सखा है। मित्र का गुण बुरे समय में मित्र की सहायता व सहयोग करना होता है। ईश्वर भी हर क्षण, यहां तक की पूरे जीवनकाल में व मृत्युकाल के बाद व नये जन्म से पूर्व तक भी, हमारे साथ रहता है व हमें दुःखों से दूर रखने के साथ हमें दुःखों से बचाता भी है, इसी लिए वह हमारा सच्चा व सनातन मित्र है। ईश्वर हमारा स्वामी व राजा भी है। यह भी कह सकते हैं कि वह सब स्वामियों का स्वामी, सब गुरुओं का गुरु, सब राजाओं का भी राजा, न्यायाधीशों का भी न्यायाधीश है। यह सब व ऐसे अनेक संबंध हमारे ईश्वर के साथ है। हम यदि चाहें व ईश्वर भी चाहें तो भी यह सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो सकते, सदा सदा बने ही रहेंगे। अतः प्रश्न उठता है कि इस स्थिति में ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है?
ईश्वर के प्रति जीवात्मा का वही सम्बन्ध है जो पुत्र का माता व पिता, मित्र का मित्र के प्रति, शिष्य का गुरु व आचार्य के प्रति व भक्त का भगवान के प्रति होता है। भक्त भक्ति करने वाले को कहते हैं। भक्ति भगवान के गुणों को जानकर उसके अनुरूप स्वयं को बनाने, ढालने वा उन गुणों को धारण करने को कहते हैं। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर और जीवात्मा का व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक, गुरु-शिष्य, उपास्य-उपासक का सम्बन्ध है। जीवात्मा को ओ३म् का जप, गायत्री मन्त्र का जप सहित ईश्वर का अधिक से अधिक समय तक ध्यान व उपासना करना होता है। ध्यान व उपासना में जीवात्मा ईश्वर के साथ जुड़ जाता है जिससे लाभ यह होता है कि व्यापक-व्याप्य संबंध रखने वाले ईश्वर-जीवात्मा की संगति से जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर जैसे बनने आरम्भ हो जाते हैं। जीवात्मा दुरितों वा असत्य को छोड़ कर भद्र वा सत्य को धारण करता है। वह ईश्वर की उपासना को अपना नित्य कर्तव्य मानता है व करता भी है। वह परोपकार, दीन- दुखियों की सेवा, दान, वेद प्रचार आदि कार्यों को करता है। यही मनुष्य के कर्तव्य हैं। वेदों का स्वाध्याय करना भी सभी मनुष्य का कर्तव्य वा परम धर्म है। वेदों के स्वाध्याय करने से सत्य कर्तव्यों के पालन करने की शिक्षा व बल मिलता है। यह सब अनुभूति के विषय हैं जिसे स्वयं करके ही जाना जा सकता है। आईये ! प्रतिदिन वेद व वैदिक साहित्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय के व्रत सहित ईश्वर के ध्यान व दैनिक अग्निहोत्र का व्रत लें, अन्य दैनिक यज्ञों को भी करें और जीवन को सफल करें अर्थात् मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़े। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘आर्यसमाज वजीरपुर दिल्ली द्वारा सम्मानित किए जाने के लिए आर्यसमाज के यशस्वी विद्वान नेता श्री धर्मपाल आर्य जी को बधाई’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
30 अप्रैल, 2017 को आर्यसमाज वजीरपुर, जेजे कालोनी के स्वर्ण जयन्ती समारोह के अवसर पर श्री धर्मपाल जी को सपत्नीक सम्मानित किया गया है। आज कुछ समय पूर्वयह जानकारी पाकर हमें हार्दिक प्रसन्नता हुई। यह सम्मान श्री धर्मपाल जी आर्य को तो है ही, हमें लगता है कि इसका श्रेय उनके ऋषिभक्त पूज्य पिता लाला दीपचन्द आर्य जी और माता बालमति आर्या जी को भी जाता है। इन आर्य माता-पिता से प्राप्त संस्कारों के कारण ही श्री धर्मपाल जी आर्य की गुरुकुल झज्जर में प्रसिद्ध विद्वानों के आचार्यत्व में शिक्षा दीक्षा हुई। इस शिक्षा के परिणाम से वह संस्कृत के विद्वान बनने के साथ ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के समस्त परम्पराओं से भी परिचित हुए। ऋषिभक्त लाला दीपचन्द जी आर्य ने ऋषि दयानन्द और आर्ष ग्रन्थों के प्रचार प्रसार का अति प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका यश अमर व अक्षुण है। आपने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की स्थापना कर उसके माध्यम से अनेक दुर्लभ एवं महत्वपूर्ण ग्रंथों का लागत से भी कम मूल्य पर भव्य एव आकर्षक आकार प्रकार में प्रकाशन किया। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की स्थापना वर्ष 1966 में हुई थी। हम सन् 1970 व उसके कुछ बाद ही इस ट्रस्ट की मासिक पत्रिका दयानन्द सन्देश से जुड़ गये थे। सन् 1974 के मई महीने में दिल्ली जाकर माता बालमति आर्या और लाला दीपचन्द आर्य जी से पहली बार मिले थे। पं. राजवीर शास्त्री न्यास की पत्रिका दयानन्द सन्देश का उत्तम सम्पादन करते थे। उनके लेख पढ़कर पाठक उनकी ऋषि भक्ति के सम्मुख नतमस्तक हो जाते थे। आपने आर्यसमाज को नये नये विषयों के महत्वपवूर्ण विशेषांक देकर आर्य साहित्य को समृद्ध किया है। वैदिक मनोविज्ञान, जीवात्म ज्योति, विषय सूची, सृष्टि संवत् तथा वेदार्थ समीक्षा विशेषांक और ऐसे अनेक महत्ववपूर्ण व शोध पूर्ण विशेषांक वा ग्रन्थ आपकी लेखनी से निःसृत होकर आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से प्रकाशित हुए हैं। अब हम इनके नये संस्करणों की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब कि किसी प्रकाशक व आर्य नेताओं की इन पर दृष्टि पड़े और इनका कल्याण हो।
श्री धर्मपाल आर्य जी आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के यशस्वी प्रधान हैं। समय समय पर इस प्रकाशन से आर्य जगत को अनेक नये ग्रन्थों का उपहार मिलता आ रहा है। आर्यसमाज नया बांस खारी बावरी के बिलकुल समीप है। लाला दीपचन्द आर्य जी और श्री धर्मपाल आर्य जी इसी समाज से जुड़े हैं और इसके मुख्य अधिकारी रहते आ रहे हैं। सन् 1875 में दिल्ली में आर्यसमाज की शताब्दी मनाई गई थी। हम भी इस समारोह में सम्मिलित हुए थे। इस अवसर पर आर्यसमाज नयाबांस की ओर पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी का सामवेद भाष्य प्रकाशित कर बहुत अल्प मूल्य पर वितरित किया था। मूल्य सम्भवतः 16 रूपये था। हमें स्मरण है कि बहुत लोगों ने यह सामवेद भाष्य खरीदा था। हमारे पास भी यह संस्करण था जिसे बाद में हमने अपने किसी मित्र को भेंट कर दिया था। अब हमारे पास इसका नया भव्य संस्करण है। इस समय हमारी स्मृति में आ रहा है कि आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली से ऋषि की आद्य जीवनी ‘दयानन्द दिग्विजयार्क’, यजुर्वेद भाष्य भाष्कर व यजुर्वेद भाष्य भाष्कर भाषानुवाद टीकायें, उपदेशमंजरी का विस्तृत विषय सूची सहित एक उपयोगी भव्य संस्करण, ऋग्वेद भाष्य भाष्कर टीका के कुछ भाग, मनुस्मृति व विशुद्ध मनुस्मृति के अनेक संस्करण, तीन वृहत् खण्डों में वेदार्थ कल्पद्रुम, वैदिक कोष आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। पं. लेखराम रचित ऋषि का वृहद जीवन चरित्र आर्य साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों में है। इसका प्रकाशन भी ट्रस्ट की ओर से होता आया है। अब यह संस्करण सम्भवतः समाप्त हो गया है। हम आशा करते हैं कि शीघ्र ही इसके प्रकाशन की व्यवस्था भी होगी। अजमेर में आयोजित ऋषि निर्वाणोत्सव के अवसर पर दयानन्द ग्रन्थमाला का प्रकाशन सहित दीर्घकाल से सत्यार्थ प्रकाश के विभिन्न भव्य संस्करणों एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय व दयानन्द लघु ग्रन्थ संग्रह आदि ग्रन्थों का प्रकाशन भी ट्रस्ट से हो चुका है व कुछ का अब भी हो रहा है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कार विधि के आरम्भिक प्रामाणिक संस्करणों की फोटो प्रतियां भी पुस्तक रूप में ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित की गई थी जिसका उद्देश्य मूल ग्रन्थों का संरक्षण एवं इन ग्रन्थों में पाठ परिवर्तनों को रोकना था। इन्हीं के आधार पर अब इन ग्रन्थों का प्रकाशन किया जाता है। हमें यह लिखने में भी प्रसन्नता एवं गौरव अनुभव होता है कि आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली ने सत्यार्थ प्रकाश का लगभग 13 लाख की संख्या में प्रकाशन कर पुण्य अर्जित किया है और ऋषि मिशन की प्रशंसनीय सेवा की है। यह भी बता दें कि एक ओर जहां इन ऋषि ग्रन्थों का भव्य प्रकाशन हुआ है वहीं ट्रस्ट द्वारा इनका मूल्य भी बहुत अल्प रखा गया है। इस गुण ने ही आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने आर्यजगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।
हमारा सौभाग्य है कि हमें लाला दीपचन्द आर्य जी व माता बालमति आर्या जी के दर्शन करने व उनसे वार्तालाप का अवसर मिला है। आर्यजगत की इन महान् हस्तियों से भेंट में हमें जो स्नेह मिला उसने हमारे मन पर एक विशेष सात्विक छाप बनाई हुई है। हमें कोई पूछे कि आदर्श आर्य कैसे होते हैं, तो हम इन्हीं की ओर संकेत करेंगे। माता-पिता के गुणों से परिपूर्ण श्री धर्मपाल आर्य जी आर्यसमाज सहित दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा और आर्यसमाज के अनेक कार्यों से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। हमें स्मरण है कि जब जयपुर में महाराज मनु की प्रतिमा को उच्च न्यायालय परिसर से हटाने का आदेश हुआ था तो श्री धर्मपाल जी ने ही स्टे आर्डर लिया था और मुकदमें में बहस के लिए स्वयं ही पहुंचते थे। ऐसे अनेक कार्यों के लिए आप आर्यजगत के पूज्य हैं। हमें विश्वास है कि आप भविष्य में भी इन सभी कार्यों को जारी रखेंगे। हम समझते हैं कि आप जो सामाजिक व सार्वजनिक जीवन में कार्य कर रहे हैं उससे अच्छे कार्य और कुछ नहीं हो सकते। आप इन कार्यों को करते रहें। हम आपकी सफलता की कामना करते हैं। ईश्वर आपको स्वस्थ रखें। आपकी सार्वत्रिक उन्नति हो। आर्यसमाज वजीरपुर जेजे कालोनी में हुए सम्मान के लिए हम आपको और आपके पूरे परिवार को पुनः पुनः हार्दिक बधाई देते हैं। ओ३म् शम्।
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