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रचनाकार - हेमा पाण्डेय
अकेले में अस्तित्व की
खोज बेहतर होती है
या अकेले में ही होती है
दो मनुष्यों का साथ जीना
साथ बढ़ना और बदलना
एक समान तराजु से
तौलकर बराबर बराबर होता
तो आदर्श ही होता।
लेकिन खांचे रह जाते है।
बल्कि खाइयां
अक्सर तो एक होम हो जाता है
या अपने निजी अस्तित्व को
दूसरे के होने में घुला देता है।
और मानता है कि मिला दिया
अब इसके फलने में ही
मेरा खिलना है
मानव संस्कृति की ये
भोली भाली दिखने वाली बाते
दरसल झूठी है।
एक सामाजिक राजनीति
का हिस्सा है
और प्रेम मानवता त्याग
नैतिकता समर्पण के
समुद्र में इन्हें पहचानने के लिए
बेहद बारीक निगाह की जरूरत है
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