रचनाकार - प्रभुदयाल श्रीवास्तव
12 शिवम् सुंदरम नगर छिंदवाड़ा म प्र
बच्चे पढ़ते नहीं किताब
दादाजी कुछ सोच रहे हैं,
उन्हें लग रहा बहुत खराब।
उन्हें लग रहा बहुत खराब।
कहते हैं वह, जब छोटे थे,
बाल पुस्तकें पढ़ते थे।
पहले मिलें उन्हें ही पढ़ने,
छीना झपटी करते थे।
पता नहीं क्या हुआ आजकल,बाल पुस्तकें पढ़ते थे।
पहले मिलें उन्हें ही पढ़ने,
छीना झपटी करते थे।
बच्चे पढ़ते नहीं किताब।
वे अपने पापा से कहकर,
नई पुस्तकें मंगवाते।
चंदामामा ,चम्पक, नंदन,
एक बार में पढ़ जाते।
पुस्तक पढ़कर मित्रगणों पर,
खूब गांठते रोज रुआब।
कभी कभी नई पुस्तक आती,
पढ़ने ले लेती दीदी।
जब तक पूरी न पढ़ डाले,
छूने हमें नहीं देती।
फड़ फड़ करते हम पंछी से,
पुस्तक पाने को बेताब।
अब तो केवल पाठ्य पुस्तकें,
ही बच्चे पढ़ पढ पाते हैं।
दुनियां दारी नहीं जानते,
ज्ञान किताबी पाते हैं।
ऊँच ,नीच ,सच ,झूठ किसी का,
इनमें होता नहीं हिसाब।
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राम कटोरे
सिर पर बस्ता लादे शाला,
जाते राम कटोरे।
जाते राम कटोरे।
मिले आम के पेड़ राह में,
झट उस पर चढ़ जाते।
गदरे गदरे आम तोड़कर,
बस्ते में भर लाते।
ऊधम में तो ग्राम चैम्पियन,
पढ़ने में बस कोरे।
ऊमर लगे पेड़ में ऊंचे,
वहां पहुँच न पाते।
लक्ष्य भेदने तब गुलेल से,
पत्थर वे सन्नाते।
बीन बीनकर गिरे हुए फल,
भर लेते हैं बोरे।
झट उस पर चढ़ जाते।
गदरे गदरे आम तोड़कर,
बस्ते में भर लाते।
ऊधम में तो ग्राम चैम्पियन,
पढ़ने में बस कोरे।
ऊमर लगे पेड़ में ऊंचे,
वहां पहुँच न पाते।
लक्ष्य भेदने तब गुलेल से,
पत्थर वे सन्नाते।
बीन बीनकर गिरे हुए फल,
भर लेते हैं बोरे।
ऊमर आम बेचकर उनको,
कुछ पैसे मिल जाते।
निर्धन बच्चों की शाळा में,
फ़ीस पटाकर आते।
रामकटोरे मन के सच्चे,
निर्मल ,कोमल भोरे।
कुछ पैसे मिल जाते।
निर्धन बच्चों की शाळा में,
फ़ीस पटाकर आते।
रामकटोरे मन के सच्चे,
निर्मल ,कोमल भोरे।
जाने कितने राम कटोरे,
दुनियां में रहते हैं।
बिना कहे ही मदद दूसरों,
की करते रहते हैं।
लोग समझते इन लोगों को,
हैं नाकारा छोरे।
दुनियां में रहते हैं।
बिना कहे ही मदद दूसरों,
की करते रहते हैं।
लोग समझते इन लोगों को,
हैं नाकारा छोरे।
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