“ऋषि दयानन्द ने मानव जाति के उत्थान के लिए विद्या प्राप्ति और उसके प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया”
लेखक-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
“ऋषि दयानन्द ने मानव जाति के उत्थान के लिए विद्या प्राप्ति और उसके प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया”
ऋषि दयानन्द ने योग विद्या व वेदों का ज्ञान प्राप्त कर अविद्या के खण्डन सहित वेदों का देश भर में प्रचार किया। इसके सुपरिणाम हमारे सामने हैं। हम अपने जीवन में उनके व्यक्तित्व, सिद्धान्तों व विचारों से प्रभावित होकर उन्हीं को अपने जीवन में धारण करने का प्रयास करते हैं। उनका जीवन आदर्श जीवन था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य व प्राचीन ऋषियों के समान ही वह एक ऋषि, योगी, महापुरुष व आप्त पुरुष थे। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ा। 21 वर्ष का होने पर उन्होंने अपना गृह त्याग कर दिया था। वह विद्वानों व योगियों की शरण में गये। उनसे ज्ञान प्राप्त किया व योग विद्या सीखी। वेद व्याकरण का अध्ययन सहित वेदाध्ययन किया और गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या प्राप्त कर उनकी भावना व इच्छा के अनुरूप अविद्या के नाश हेतु सर्वविद्यामय ईश्वरीय ज्ञान वेदों के प्रचार का निर्णय कर उसी में स्वयं को समर्पित कर दिया। हम जानते हैं कि अविद्या मनुष्य के जीवन में भ्रान्तियों सहित दुःख का कारण होती है जबकि विद्या से हमें अपने जीवन के उद्देश्य सहित जीवन को श्रेय मार्ग पर चलाने में सहायता व सफलता मिलती है। ऋषि दयानन्द जी भी अपनी बाल्यावस्था में सच्चे शिव के स्वरूप सहित जीवन मृत्यु के स्वरूप एवं जीवन्मुक्ति के साधनों विषयक शंकाओं से ग्रसित हुए थे। उन्हें इन विषयों से सम्बन्धित अपनी शंकाओं का समाधान कहीं से प्राप्त नहीं हो रहा था। अपनी शंकाओं के सत्य उत्तर खोजने में उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित किया। यद्यपि योग व अनेकानेक ग्रन्थों के अध्ययन से उनका पर्याप्त समाधान हो चुका था परन्तु तब भी वह विद्या को और अधिक व पूर्ण रूप में जानना चाहते थे जिसकी प्राप्ति उन्हें स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की मथुरा स्थित पाठशाल में ढ़ाई से तीन वर्ष के अध्ययन से सुलभ हुई थी। सन् 1863 में आपने स्वामी विरजानन्द जी से अपनी विद्या पूरी की। अब आप एक सच्चे योगी व सच्चे वैदिक विद्वान बन गये थे। आपका सुन्दर व प्रभावशाली व्यक्तित्व था। शरीर बलिष्ठ व ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त था। ज्ञान व तर्क में देश व संसार का कोई व्यक्ति आपका सामना नहीं कर सकता था। आप शास्त्रार्थ व संवाद के अविजेय योद्धा बन गये थे।
स्वामी जी ने सन् 1863 में मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से वेद विद्या प्राप्त कर उनसे विदा ली थी। गुरु ने उनसे उनके भावी जीवन के बारे पूछताछ की होगी। हमें प्रतीत होता है कि स्वामी जी ने तब तक अपने भावी जीवन की गतिविधियों का कोई निश्चित उद्देश्य व कार्यक्रम नहीं बनाया था। स्वामी विरजानन्द जी को जब उन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में कुछ लौंग सौंपे तो गुरु जी द्रवित हो गये। वह ऐसे शिष्य के गुरु थे कि जो ‘‘भूतो व भविष्यति” की संज्ञा वाला कहा जा सकता है। स्वामी विरजानन्द जी ने उनके सम्मुख देश में सर्वत्र विद्यमान अविद्या, अन्धविश्वास, कुरीतियों व पाखण्डों का वर्णन किया और बताया कि देश की पराधीनता व अन्य सभी दुःखों का मूल कारण वेदों का अप्रचलन, अज्ञान व अविद्या है। अविद्या वह ओषधि है कि जिसका सेवन करने से मानव जाति अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सभी प्रकार की सामाजिक बुराईयों से मुक्त हो जाती है। स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी जी को देश में वेद प्रचार कर अविद्या का नाश करने का परामर्थ दिया जिसे गुरुभक्त दयानन्द जी ने सहर्ष सादर स्वीकार किया। उसके बाद वह 20 वर्ष तक जीवत रहे और देश भर में घूम घूम कर वेदों का प्रचार और अविद्या व इससे युक्त मतों व उनकी मान्यताओं का खण्डन करते रहे। वेद प्रचार को बढ़ाने के लिए ही आपने 16 नवम्बर सन् 1869 को काशी के आनन्द बाग में काशी के तीस से अधिक शीर्ष पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर दिग्विजयी हुए थे। देश भर में भी आपने पौराणिक, मुस्लिम व ईसाई विद्वानों सहित अन्य अनेक मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ कर वेद मत की श्रेष्ठता को सिद्ध व स्वीकार कराया था। स्वामी जी मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे। ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, जन्म व कर्म फल का दाता मानते थे। इन्हीं गुणों से युक्त ईश्वर को उन्होंने सभी मनुष्यों का उपासनीय स्वीकार किया। स्वामी जी सन्ध्या, अग्निहोत्र सहित पंच महायज्ञों को सभी द्विजों के लिए आवश्यक ठहराते थे। वह जन्मना जाति वा वर्ण व्यवस्था को वेदविरुद्ध तथा कर्मणा वर्ण व्यवस्था को शास्त्र सम्मत स्वीकार करते थे। ईश्वर का अवतार नहीं होता, मृतक श्राद्ध शास्त्र विरुद्ध एवं तर्क से असिद्ध है, महाभारत काल तक आर्यों का समस्त विश्व में एकमात्र सर्वोपरि चक्रवर्ती राज्य था आदि ऐसी अनेक मान्यताओं के वह पोषक थे। वह आपद् धर्म के रूप में अल्पायु की विधवाओं के पुनर्विवाह को भी अनुमति देते थे। उनके एक शिष्य उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चन्द जी ने एक विधवा से विवाह कर उस युग में एक नये इतिहास का शुभारम्भ किया था। समाज सुधार का कोई ऐसा कार्य नहीं था जिसे स्वामी दयानन्द ने अपनी स्वीकृति प्रदान न की हो। उन्होंने दलित हितों के लिए भी अनेक कार्य व मान्यतायें प्रस्तुत कीं। एक बार एक नाई द्वारा उनके लिए भोजन लाने पर आपने उसे ग्रहण किया जिससे सभी पौराणिक पोप हैरान हो गये थे। उन्होने इसके आचैत्य को भी भली प्रकार से समझाया था। ऐसे अनेक सकारात्मक उदाहरण उनके जीवन में हमें मिलते हैं जो आज भी प्रासंगिक एवं आचरणीय है।
स्वामी दयानन्द जी की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त वेदों पर आधारित थे। वेद को वह ईश्वरीय ज्ञान बताते व सिद्ध करते थे। अविद्या दूर करने के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित वेदभाष्य एवं अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। 10 अप्रैल, सन् 1875 को उन्होंने मुम्बई के गिरिगांव मुहल्ले के काकड़वाड़ी स्थान पर आर्यसमाज की स्थापना की थी। गोरक्षा एवं हिन्दी रक्षा के लिए उन्होंने जो कार्य किया वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। हम तो यह भी कहेंगे कि संस्कृत को उन्होंने पुनर्जीवित किया। गुरुकुलीय शिक्षा का उद्धार किया। उनके शिष्यों द्वारा देश में स्थापित दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज स्थापित कर शिक्षा क्रान्ति को जन्म दिया। देश को स्वतन्त्र कराने का मूलमन्त्र भी ऋषि दयानन्द ने ही देश को दिया था। उनके शिष्य श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह जैसे अनेक देश भक्त उन्हीं की विचारधारा की देन थे। आजादी के आन्दोलन में प्रतिशतता की दृष्टि से सबसे अधिक भागीदारी भी आर्यसमाज के लोगों की ही थी। समाज को जन्मना जातिवाद से मुक्ति दिलाने का मन्त्र व उसके लिए वातावरण बनाने का काम भी उन्होंने व उनके शिष्यों ने किया। ऐसे अनेक काम हंै जो स्वामी दयानन्द जी व उनके शिष्यों ने किये व अब भी कर रहे हैं।
स्वामी जी के जीवन काल (1825-1883) में देश पराधीनता सहित अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। इनका मूल कारण अविद्या थी। इस अविद्या का नाश करने के लिए ही उन्होंने सर्वविद्यामय वा ज्ञानमय वेदों का पूरी शक्ति से प्रचार व प्रसार किया। अपने जीवन में उन्होंने आजकल की तरह कभी कोई सुख भोगा हो इसका कोई उदाहरण नहीं है। वह आर्यावर्त भारत देश को विश्व का श्रेष्ठतम व उन्नत राष्ट्र बनाना चाहते थे। इसके लिए वह प्रत्येक क्षण विद्या के प्रचार प्रसार में ही लगे रहे। अवरोध पैदा करने के लिए अनेक बार विधर्मियों ने उन्हें विष दिया, उसकी भी उन्होंने परवाह नहीं की। यदि वह न आते तो वैदिक धर्म व संस्कृति का सूर्य अस्त होने को था जिसे उन्होंने बचा लिया और आर्य धर्म व संस्कृति जिसे सनातन धर्म भी कहते हैं, उसे संसार का श्रेष्ठतम धर्म व मत बना दिया। आज वैदिक धर्म ही संसार में ऐसा मत है जिसकी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य की कसौटी तर्क व सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं। अन्य किसी मत के सिद्धान्तों का आर्यसमाज द्वारा पोषित वैदिक मत के सिद्धान्त के समान होने का प्रश्न ही नहीं है। आर्यसमाज द्वारा पोषित सिद्धान्त असत्य व अन्धविश्वासों से मुक्त हैं तो अन्य सभी मत इनसे ग्रसित हैं। आर्येतर सभी मत अज्ञान, अन्धविश्वास, हिंसा, लोभ, काम, क्रोध आदि की भावनाओं से ग्रस्त है। वह यही चाहते हैं कि अन्य मतों के लोगों का धर्मान्तरण कर देश पर अपना आधीपत्य स्थापित कर लें परन्तु ऋषि दयानन्द के अविद्या के नाश के मिशन व वेद प्रचार ने उनके मंसूबों को धूल में मिला दिया है। आज कोई मत वैदिक मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ करने के लिए तत्पर नहीं होता। इसका कारण है कि सब मतों को अपनी अपनी न्यूनताओं का ज्ञान है। वैदिक धर्म को यह ज्येष्ठता व श्रेष्ठता स्वामी दयानन्द के प्रयासों व विद्या के प्रचार से ही मिली है। स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर कठोर तप व पुरुषार्थ का जीवन व्यतीत किया। यह उन्होंने अपने लिए नहीं अपितु अपने देश आर्यावत्र्त भारत और अपने देशवासी आर्यों का स्वर्णिम भविष्य बनाने के लिए किया। हमारा देश सबसे अधिक यदि ऋणी हैं तो उन्हीं का ही है। हम उन्हें हृदय की समस्त भावनाओं से नमन करते हैं। भविष्य में ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का उनका स्वप्न एक दिन अवश्य साकार होगा क्योंकि एक मात्र वैदिक धर्म ही सत्य व विज्ञान की कसोटी पर खरा है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121
“ऋषि दयानन्द ने मानव जाति के उत्थान के लिए विद्या प्राप्ति और उसके प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया”
ऋषि दयानन्द ने योग विद्या व वेदों का ज्ञान प्राप्त कर अविद्या के खण्डन सहित वेदों का देश भर में प्रचार किया। इसके सुपरिणाम हमारे सामने हैं। हम अपने जीवन में उनके व्यक्तित्व, सिद्धान्तों व विचारों से प्रभावित होकर उन्हीं को अपने जीवन में धारण करने का प्रयास करते हैं। उनका जीवन आदर्श जीवन था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य व प्राचीन ऋषियों के समान ही वह एक ऋषि, योगी, महापुरुष व आप्त पुरुष थे। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ा। 21 वर्ष का होने पर उन्होंने अपना गृह त्याग कर दिया था। वह विद्वानों व योगियों की शरण में गये। उनसे ज्ञान प्राप्त किया व योग विद्या सीखी। वेद व्याकरण का अध्ययन सहित वेदाध्ययन किया और गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या प्राप्त कर उनकी भावना व इच्छा के अनुरूप अविद्या के नाश हेतु सर्वविद्यामय ईश्वरीय ज्ञान वेदों के प्रचार का निर्णय कर उसी में स्वयं को समर्पित कर दिया। हम जानते हैं कि अविद्या मनुष्य के जीवन में भ्रान्तियों सहित दुःख का कारण होती है जबकि विद्या से हमें अपने जीवन के उद्देश्य सहित जीवन को श्रेय मार्ग पर चलाने में सहायता व सफलता मिलती है। ऋषि दयानन्द जी भी अपनी बाल्यावस्था में सच्चे शिव के स्वरूप सहित जीवन मृत्यु के स्वरूप एवं जीवन्मुक्ति के साधनों विषयक शंकाओं से ग्रसित हुए थे। उन्हें इन विषयों से सम्बन्धित अपनी शंकाओं का समाधान कहीं से प्राप्त नहीं हो रहा था। अपनी शंकाओं के सत्य उत्तर खोजने में उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित किया। यद्यपि योग व अनेकानेक ग्रन्थों के अध्ययन से उनका पर्याप्त समाधान हो चुका था परन्तु तब भी वह विद्या को और अधिक व पूर्ण रूप में जानना चाहते थे जिसकी प्राप्ति उन्हें स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की मथुरा स्थित पाठशाल में ढ़ाई से तीन वर्ष के अध्ययन से सुलभ हुई थी। सन् 1863 में आपने स्वामी विरजानन्द जी से अपनी विद्या पूरी की। अब आप एक सच्चे योगी व सच्चे वैदिक विद्वान बन गये थे। आपका सुन्दर व प्रभावशाली व्यक्तित्व था। शरीर बलिष्ठ व ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त था। ज्ञान व तर्क में देश व संसार का कोई व्यक्ति आपका सामना नहीं कर सकता था। आप शास्त्रार्थ व संवाद के अविजेय योद्धा बन गये थे।
स्वामी जी ने सन् 1863 में मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से वेद विद्या प्राप्त कर उनसे विदा ली थी। गुरु ने उनसे उनके भावी जीवन के बारे पूछताछ की होगी। हमें प्रतीत होता है कि स्वामी जी ने तब तक अपने भावी जीवन की गतिविधियों का कोई निश्चित उद्देश्य व कार्यक्रम नहीं बनाया था। स्वामी विरजानन्द जी को जब उन्होंने गुरु दक्षिणा के रूप में कुछ लौंग सौंपे तो गुरु जी द्रवित हो गये। वह ऐसे शिष्य के गुरु थे कि जो ‘‘भूतो व भविष्यति” की संज्ञा वाला कहा जा सकता है। स्वामी विरजानन्द जी ने उनके सम्मुख देश में सर्वत्र विद्यमान अविद्या, अन्धविश्वास, कुरीतियों व पाखण्डों का वर्णन किया और बताया कि देश की पराधीनता व अन्य सभी दुःखों का मूल कारण वेदों का अप्रचलन, अज्ञान व अविद्या है। अविद्या वह ओषधि है कि जिसका सेवन करने से मानव जाति अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सभी प्रकार की सामाजिक बुराईयों से मुक्त हो जाती है। स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी जी को देश में वेद प्रचार कर अविद्या का नाश करने का परामर्थ दिया जिसे गुरुभक्त दयानन्द जी ने सहर्ष सादर स्वीकार किया। उसके बाद वह 20 वर्ष तक जीवत रहे और देश भर में घूम घूम कर वेदों का प्रचार और अविद्या व इससे युक्त मतों व उनकी मान्यताओं का खण्डन करते रहे। वेद प्रचार को बढ़ाने के लिए ही आपने 16 नवम्बर सन् 1869 को काशी के आनन्द बाग में काशी के तीस से अधिक शीर्ष पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर दिग्विजयी हुए थे। देश भर में भी आपने पौराणिक, मुस्लिम व ईसाई विद्वानों सहित अन्य अनेक मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ कर वेद मत की श्रेष्ठता को सिद्ध व स्वीकार कराया था। स्वामी जी मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे। ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, जन्म व कर्म फल का दाता मानते थे। इन्हीं गुणों से युक्त ईश्वर को उन्होंने सभी मनुष्यों का उपासनीय स्वीकार किया। स्वामी जी सन्ध्या, अग्निहोत्र सहित पंच महायज्ञों को सभी द्विजों के लिए आवश्यक ठहराते थे। वह जन्मना जाति वा वर्ण व्यवस्था को वेदविरुद्ध तथा कर्मणा वर्ण व्यवस्था को शास्त्र सम्मत स्वीकार करते थे। ईश्वर का अवतार नहीं होता, मृतक श्राद्ध शास्त्र विरुद्ध एवं तर्क से असिद्ध है, महाभारत काल तक आर्यों का समस्त विश्व में एकमात्र सर्वोपरि चक्रवर्ती राज्य था आदि ऐसी अनेक मान्यताओं के वह पोषक थे। वह आपद् धर्म के रूप में अल्पायु की विधवाओं के पुनर्विवाह को भी अनुमति देते थे। उनके एक शिष्य उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चन्द जी ने एक विधवा से विवाह कर उस युग में एक नये इतिहास का शुभारम्भ किया था। समाज सुधार का कोई ऐसा कार्य नहीं था जिसे स्वामी दयानन्द ने अपनी स्वीकृति प्रदान न की हो। उन्होंने दलित हितों के लिए भी अनेक कार्य व मान्यतायें प्रस्तुत कीं। एक बार एक नाई द्वारा उनके लिए भोजन लाने पर आपने उसे ग्रहण किया जिससे सभी पौराणिक पोप हैरान हो गये थे। उन्होने इसके आचैत्य को भी भली प्रकार से समझाया था। ऐसे अनेक सकारात्मक उदाहरण उनके जीवन में हमें मिलते हैं जो आज भी प्रासंगिक एवं आचरणीय है।
स्वामी दयानन्द जी की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त वेदों पर आधारित थे। वेद को वह ईश्वरीय ज्ञान बताते व सिद्ध करते थे। अविद्या दूर करने के लिए उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय सहित वेदभाष्य एवं अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। 10 अप्रैल, सन् 1875 को उन्होंने मुम्बई के गिरिगांव मुहल्ले के काकड़वाड़ी स्थान पर आर्यसमाज की स्थापना की थी। गोरक्षा एवं हिन्दी रक्षा के लिए उन्होंने जो कार्य किया वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। हम तो यह भी कहेंगे कि संस्कृत को उन्होंने पुनर्जीवित किया। गुरुकुलीय शिक्षा का उद्धार किया। उनके शिष्यों द्वारा देश में स्थापित दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज स्थापित कर शिक्षा क्रान्ति को जन्म दिया। देश को स्वतन्त्र कराने का मूलमन्त्र भी ऋषि दयानन्द ने ही देश को दिया था। उनके शिष्य श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह जैसे अनेक देश भक्त उन्हीं की विचारधारा की देन थे। आजादी के आन्दोलन में प्रतिशतता की दृष्टि से सबसे अधिक भागीदारी भी आर्यसमाज के लोगों की ही थी। समाज को जन्मना जातिवाद से मुक्ति दिलाने का मन्त्र व उसके लिए वातावरण बनाने का काम भी उन्होंने व उनके शिष्यों ने किया। ऐसे अनेक काम हंै जो स्वामी दयानन्द जी व उनके शिष्यों ने किये व अब भी कर रहे हैं।
स्वामी जी के जीवन काल (1825-1883) में देश पराधीनता सहित अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। इनका मूल कारण अविद्या थी। इस अविद्या का नाश करने के लिए ही उन्होंने सर्वविद्यामय वा ज्ञानमय वेदों का पूरी शक्ति से प्रचार व प्रसार किया। अपने जीवन में उन्होंने आजकल की तरह कभी कोई सुख भोगा हो इसका कोई उदाहरण नहीं है। वह आर्यावर्त भारत देश को विश्व का श्रेष्ठतम व उन्नत राष्ट्र बनाना चाहते थे। इसके लिए वह प्रत्येक क्षण विद्या के प्रचार प्रसार में ही लगे रहे। अवरोध पैदा करने के लिए अनेक बार विधर्मियों ने उन्हें विष दिया, उसकी भी उन्होंने परवाह नहीं की। यदि वह न आते तो वैदिक धर्म व संस्कृति का सूर्य अस्त होने को था जिसे उन्होंने बचा लिया और आर्य धर्म व संस्कृति जिसे सनातन धर्म भी कहते हैं, उसे संसार का श्रेष्ठतम धर्म व मत बना दिया। आज वैदिक धर्म ही संसार में ऐसा मत है जिसकी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य की कसौटी तर्क व सृष्टिक्रम के अनुकूल हैं। अन्य किसी मत के सिद्धान्तों का आर्यसमाज द्वारा पोषित वैदिक मत के सिद्धान्त के समान होने का प्रश्न ही नहीं है। आर्यसमाज द्वारा पोषित सिद्धान्त असत्य व अन्धविश्वासों से मुक्त हैं तो अन्य सभी मत इनसे ग्रसित हैं। आर्येतर सभी मत अज्ञान, अन्धविश्वास, हिंसा, लोभ, काम, क्रोध आदि की भावनाओं से ग्रस्त है। वह यही चाहते हैं कि अन्य मतों के लोगों का धर्मान्तरण कर देश पर अपना आधीपत्य स्थापित कर लें परन्तु ऋषि दयानन्द के अविद्या के नाश के मिशन व वेद प्रचार ने उनके मंसूबों को धूल में मिला दिया है। आज कोई मत वैदिक मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ करने के लिए तत्पर नहीं होता। इसका कारण है कि सब मतों को अपनी अपनी न्यूनताओं का ज्ञान है। वैदिक धर्म को यह ज्येष्ठता व श्रेष्ठता स्वामी दयानन्द के प्रयासों व विद्या के प्रचार से ही मिली है। स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर कठोर तप व पुरुषार्थ का जीवन व्यतीत किया। यह उन्होंने अपने लिए नहीं अपितु अपने देश आर्यावत्र्त भारत और अपने देशवासी आर्यों का स्वर्णिम भविष्य बनाने के लिए किया। हमारा देश सबसे अधिक यदि ऋणी हैं तो उन्हीं का ही है। हम उन्हें हृदय की समस्त भावनाओं से नमन करते हैं। भविष्य में ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का उनका स्वप्न एक दिन अवश्य साकार होगा क्योंकि एक मात्र वैदिक धर्म ही सत्य व विज्ञान की कसोटी पर खरा है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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