"करोड़ों में बिका था"

रचनाकार - विजय 'विभोर'

"करोड़ों में बिका था"


दरवाजे पर हुई ठक ठक
दिल में हुई धक् धक्
जिस्म थर्राया
मन घबराया
इस महंगाई के दौर में
इतनी भौर में
कौन है आया
किसने इस गरीब का
दरवाजा ठक ठकाया|

बड़ी हिम्मत जुटाई
अपनी लंगोटी उठाई
दरवाजा खोला
बहार झाँका
देखा
खद्दर धारी था खड़ा
वो समाज सेवक था बड़ा
हाथ जोड़े, सर झुकाये
कह रहा था
अब तक आपने
कमल को अजमाया है
हाथ का बटन भी खूब दबाया है
मैं निर्दलीय हूँ
मिटटी से जुडा हूँ
आपकी सेवा करना चाहता हूँ
इस लिए चुनाव में खड़ा हूँ
और हाथ जोड़ कर
आपसे आपका कीमती वोट मांगता हूँ|

हम ठहरे संस्कारी
बुजर्गों के आज्ञाकारी
दरवाजे पर आये भिखारी को भी
कभी खली हाथ नहीं लौटाते
फिर ये तो
सेवा करना चाहता है
सिर्फ वोट ही तो मांगता है|

वक्त आने पर
हमने अपना वोट
उसी को दिया था
और वह चुनाव जीता था
लेकिन हाय री किस्मत
उसी रात
वह
उन्ही के हाथो
करोड़ों में बिका था
जिन्होंने हमें
अब तक लूटा था
अब तक लूटा था
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विजय 'विभोर'
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