‘ऋषिभक्त आर्यों, नेताओं व विद्वानों का राग-द्वेष से मुक्त होना आवश्यक’

लेखक-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

‘ऋषिभक्त आर्यों, नेताओं व विद्वानों का राग-द्वेष से मुक्त होना आवश्यक’

मनुष्य को राग व द्वेष से मुक्त होना चाहिये या युक्त होना चाहिये? आर्यसमाज और इसके नेताओं व सदस्यों में इन अवगुणों की कुछ कम या अधिक उपस्थिति को देखकर ही आज हमनें इस विषय को प्रस्तुत करने का विचार किया। महर्षि दयानन्द जी ने ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ लघु ग्रन्थ में मनुष्य की परिभाषा दी है। उसमें उन्होंने मनुष्यों को अन्यायकारी बलवान् से न डरने और धर्मात्मा निर्बलों से डरने को कहा है। इसके साथ ही उन्होंने धर्मात्माओं निर्बलों की रक्षा, उनकी उन्नति और उनके प्रति प्रियाचरण करने को कहा है चाहे कि धर्मात्मा महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित भी क्यों न हों। इसके साथ ही स्वामी जी कहते हैं कि अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में मनुष्य नामी प्राणी को चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे उसके प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवें। यहां स्वामी जी ने धर्मात्मा एवं अधर्मियों का उल्लेख कर धर्मात्माओं की रक्षा करने और अधर्मियों का नाश करने की प्रेरणा दी है। गीता नामक ग्रन्थ में भी कहा गया है कि साधुओं (धर्मात्माओं) की रक्षा, दुष्टों (अधर्मियों) का नाश करने के लिए तथा मनुष्य समाज में धारण करने योग्य सद्धर्म की स्थापना (वेद धर्म प्रचार) के लिए ही योगेश्वर कृष्ण जी ने जन्म लिया है। इस परिप्रेक्ष्य में जब हम आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं के नेताओं में परस्पर विरोध व सदस्यों में अन्यों को अपने पक्ष में करने की प्रवृत्ति और पदों पर आसीन होने की प्रवृत्ति को देखते हैं तो हमें लगता है कि ऐसे लोग ऋषि दयानन्द की आज्ञा का उल्लघंन कर रहे हैं क्यांेिक ऐसा करना धर्म न होकर अधर्म होता है। हमें आर्यसमाज में ऐसे भी बहुत से विद्वान अनुभव होते हैं कि जो अन्य विद्वानों की समय समय पर आलोचना व निन्दा करते रहते हैं। हम सब जानते हैं कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। जाने अनजाने उससे गलतियां हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में किसी की गलतियों का एक या दो बार संकेत करना ही उचित होता है। परन्तु देखा गया है कि कई विद्वान समय समय पर किसी विशेष आर्य विद्वान के कुछ विचारों व निर्णयों को लेकर उसकी प्रताड़ना करते रहते हैं। हमें इसमें अन्य कारणों सहित उनका कुछ कुछ राग व द्वेष ही दृष्टि गोचर होता है। इससे आर्यसमाज की समरसता भंग होती है औरे आर्यसमाज का आन्दोलन कमजोर पड़ता है।

हम जब इस स्थिति पर विचार करते हैं तो हमें संगठन सूक्त और सन्ध्या में मनसा परिक्रमा मन्त्रों का ध्यान आता है। हम यदि संगठन सूक्त के अनुसार आर्यसमाज को संगठित नही कर पा रहे हैं तो यह हमारे सभी विद्वानों व आर्यों की कुछ कुछ शिथिलतायें हैं। हमें लगता है कि या तो हम संगठन सूक्त का पाठ ही न करें और यदि करते हैं और उसे उचित भी मानते हैं तो हमे उसकी भावना पर विचार करके स्वयं को तो उसके अनुरूप ढालना ही चाहिये। यदि हम ढलेंगे तो इसका प्रभाव व लाभ हमें तो मिलेगा ही हमारे विरोधियों को भी इससे प्रेरणा व लाभ हो सकता है। हमारे विरोधियों व प्रतिपक्षियों का हमारे प्रति उपेक्षा का भाव, वैमनस्य अथवा राग-द्वेष एक सीमा तक कम हो सकता है। हमने इसे अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से अनुभव भी किया है। यह बात और है कि कुछ लोगों के आर्थिक हितों व पदलोलुपता आदि की प्रवृत्ति उन्हें सत्य को स्वीकार करने से रोकती है। ऐसी स्थिति में भी हमने देखा है कि कालान्तर में स्वयं को धर्म में स्थिति रखने वाले व्यक्ति का कल्याण होता है। हमारे सम्मुख अनेक बड़े बड़े आर्य विद्वानों के जीवन हैं जिन्होंने आर्यसमाज व इसकी किसी संस्था में कभी किसी पद को ग्रहण नहीं किया। आज भी इन विद्वानों की देश भर के समाजों में अच्छी प्रतिष्ठिा है जबकि वर्षों तक बड़े पदों पर बने रहे नेताओं जिन्होंने फूट डालकर अपना मनोरथ सिद्ध किया था, उनका अब कोई नाम भी नहीं लेता। अतः आर्यसमाज के सदस्य, विद्वानों व नेताओं को राग-द्वेष से मुक्त व संगठित होकर कार्य करना चाहिये और किसी विद्वान व नेता की लिखित व अन्य प्रकार से आलोचना करने में अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यतीत नहीं करना चाहिये। इससे वह अधिक कार्य कर सकेंगे और अच्छा जीवन व्यतीत कर सकेंगे। स्वार्थमय जीवन कुछ दिनों हमें प्रसन्नता आदि दे सकता है परन्तु दीर्घ काल में यह हानिकर ही सिद्ध होता है।

आज का विषय हमने इस लिए चुना कि हम देख रहे हैं कि आर्यसमाज में ऐसा ही कुछ अन्तद्र्वन्द चल रहा है जिससे आर्यसमाज की शक्ति क्षीण होने के साथ प्रचार कार्य की गति धीमी हो गई है। आज स्थिति यह देखने को मिलती है कि आर्यसमाज व किसी बड़ी आर्य संस्था के उत्सव होते हैं तो वहां आमंत्रित विद्वानों को देखकर अपने पराये की भावना के आसानी से दर्शन किये जा सकते हैं। हमारे उत्सवों का स्तर भी अब वह नहीं रहा जिसकी की आर्यसमाज से अपेक्षा की जाती है। आरम्भ में श्रोता नहीं होते तो भजनोपदेशकों को समय दिया जाता है। जब कुछ लोग आ जाते हैं तो कार्यक्रम को आरम्भ करते हुए प्रमुख वक्ताओं को समय दिया जाता है। यहां भी हमने अनेक स्थानों पर पक्षपात होते हुए देखा है। कुछ लोग आर्यसमाज के अधिकारियों के प्रिय होते हैं तो उन्हें भजन व कुछ सुनाने के लिए समय दे दिया जाता है। इसके पीछे मुख्य कारण उन लोगों को संस्था को दिया जाने वाला सहयोग भी होता है परन्तु उनके भजन व मंत्रोच्चार आदि की गुणवत्ता कई बार बहुत ही खराब भी होती है। यदि हमारे सभी वक्ता अनुशासन में रहकर निर्धारित समय सीमा में अपनी बात कहें तो इससे अधिक लोगों को अपनी बातें कहने का अवसर मिल सकता है। अतः भजनोपदेशकों, विद्वानों व मंच पर अपनी प्रस्तुतियां दिये जाने वाले सभी व्यक्तियों को अनुशासन में रहकर समय सीमा का कठोरता से पालन करना चाहिये जिससे श्रोताओं को अधिक से अधिक लाभ हो और संचालक महोदय पर अनावश्यक मानसिक दबाव न हो। उत्सवों मे आमंत्रित करते हुए गुणवत्ता व विद्वता के मुख्य स्थान देना चाहिये और प्रस्तुतियों का समय निर्धारित कर अनुशासन रखा जाना चाहिये।

आर्यसमाज में कुछ विद्वान हैं जो अपने अतीत के किसी प्रतिद्वन्दी की किन्हीं उचित व अनुचित कारणों से आलोचना करते हैं। एक, दो या तीन बार आलोचना कर दी जाये तो यह बहुत होता है परन्तु कई विद्वान तो लेखन आदि करते हुए कहीं अवसर मिलने पर चूकते नहीं हैं। वह तो इससे सन्तुष्ट हो जाते हैं परन्तु वह नही जानते कि अन्य विद्वानों व श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव होता है। यदि कोई विद्वान ऐसे विद्वानों की कभी कोई त्रुटि उजागर कर दे तो इन बार बार आलोचना करने वाले विद्वानों को बुरा लगता है और वह इसके उपाय ढूंढते हैं। हमारे सामने यदा कदा ऐसी स्थितिर्यां आइं हैं, इसलिए हमने यह बात संकेत रूप में कही है। इस विषय में हमारी सभी विद्वानों से विनती है कि अब वह अपने पूर्ववर्ती व समकालीन विद्वानों के विषय में जो राग व द्वेष अथवा ऋषि के जीवन विषय में कुछ अस्वीकार्य बातों को लेकर आलोचना करते रहे हैं, उसे बन्द कर दें और पक्ष विपक्ष की भावना से भी ऊपर उठकर सभी विद्वान व नेताओं का उनके गुण, कर्म, स्वभाव, योग्यता व आर्यसमाज के कार्यों की दृष्टि से सम्मान आदि किया करें। ‘विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ की भावना तभी सफल होगी जब सभी विद्वान व नेता दूसरों के प्रति राग-द्वेष रहित होकर आलोचना करते हुए मर्यादाओं का ध्यान रखेंगे। इससे समाज में जो विघटन होता है वह कम व दूर होकर प्रचार कार्य में सुधार व वृद्धि होगी, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

सत्यार्थप्रकाश को ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ कह सकते हैं। इसके उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में अन्तर्देशीय व दूर विदेशों में उत्पन्न मतों की समालोचना की गई है। ऋषि ने इन सभी चार समुल्लासों की पृथक भूमिका लिखी है। चतुर्दश समुल्लास की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि उनका यह लेख हठ, दुराग्रह, ईष्र्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इनको बढ़ाने के अर्थ क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह, परस्पर को लाभ पहुंचाना हमारा मुख्य कर्म है। अब यह विवेच्य मत विषय सब सज्जनों के सामने निवेदन करता हूं। विचार कर, इष्ट का ग्रहण, अनिष्ट का परित्याग कीजिये। हमारे विद्वानों को इसी भावना से ही अन्य विद्वानों की आलोचना करनी चाहिये। हमारी आलोचना पढ़कर कोई विद्वान हमसे क्षमा याचना ही करे, इसकी अपेक्षा करना उचित नहीं है।

लेख को विराम देने से पूर्व हम आर्यसमाज के विद्वानों से प्रार्थना करेंगे कि वह यथासम्भव आलोचना व प्रत्यालोचना से बचे। यदि किसी विद्वान व नेता ने कोई ऐसा कार्य अतीत में किया है जिससे लगता है कि आर्यसमाज के वर्तमान व दूरगामी हितों पर प्रतिकूल प्रभाव होगा तो उसका निराकरण करने के लिए स्वस्थ आलोचना करें। आलोच्य विद्वान व नेताओं को भी किसी विषय को विवाद का विषय बना आरोप प्रत्यारोप न कर आलोचना करने वाले विद्वानों के प्रश्नों व शंकाओं का उत्तर देना चाहिये। दोनों पक्षों के आरोप व स्पष्टीकरण आ जाने के बाद यदि दोनों पक्ष सन्तुष्ट न हों तो आर्यजगत के सर्वमान्य उच्च व वरिष्ठ संन्यासी व विद्वानों की एक समिति बनाकर उसे अन्तिम निर्णय के लिए सौंप देना चाहिये और सभी पक्षों को उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। आर्यसमाज में सभाओं व संस्थाओं में जहां कहीं कोई भी विवाद है उसे आपस में हल करने का प्रयास करना चाहिये। न्यायालय की शरण में जाने पर विवाद हल होने के स्थान पर वर्षों लग जाते हैं। स्थानीय आर्यसमाज में सन् 1994-1995 के विवादों का हल अभी तक नहीं हो सका है। विवाद से संबंधित दोनों पक्षों के मुख्य लोग संसार छोड़कर जा भी चुके हैं परन्तु जो द्वेष उत्पन्न हुआ था वह आज भी यथावत् लगता है। विवेकशील विद्वान व नेता इससे शिक्षा ले सकते हैं। हम फेस बुक पर दो विद्वानों से परिचित हैं जिनके नाम हैं श्री भावेश मेरजा जी, भरुच और दिल्ली के डा. विवेक आर्य। दोनों ही ऋषि भक्त हैं। सभा संस्थाओं के झगड़ों से सर्वथा दूर। आर्यसमाज की सोशल मीडिया के द्वारा रात दिन सेवा कर रहे हैं। हम इन दोनों विद्वानों को नमन करते हैं और अन्य विद्वानों व नेताओं से आशा करते हैं कि वह इनके जीवन व कार्यों से प्रेरणा ग्रहण करें। अन्य विद्वानों से भी प्रार्थना है कि आर्यसमाज के नेताओं व विद्वानों के परस्पर के राग व द्वेष सहित गुटबाजी आदि दूर करने के समाधान करने के लिए अपने विचार समय समय पर आर्य जनता के सामने रखते रहें। हम यह भी बता दें कि हमने लेख में व्यक्तिगत आलोचना को ही ध्यान में रखा है। कुछ सार्वजनिक हित के विषय होते हैं उसमें सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग, करना व कराना, आवश्यक होता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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ओ३म्
‘गुरुकुल पौंधा देहरादून के 18वें वार्षिकोत्सव को सफल बनाने के लिए आचार्य धनंजय जी का स्थानीय लोगों में सघन प्रचार’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौन्धा, देहरादून का आगामी 18हवां तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव शुक्रवार 2 जून 2017 से रविवार 4 जून, 2017 तक सोल्लास आयोजित किया जा रहा है। इस आयोजन में 12 दिन शेष हैं। गुरुकुल के आचार्य धनंजय जी उत्सव को सफल बनाने के लिए रात दिन पुरुषार्थ कर रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले वह अन्न संग्रह के लिए दूर-दूर की लम्बी यात्रायें करने सहित उन-उन स्थानों पर वेद प्रचार आयोजन भी सम्पन्न करा रहे थे जिसकी जानकारी हमने अपने एक लेख द्वारा दी थी। उसके बाद से वह अपने गुरुकुल के उत्सव की तैयारी में जुटे हुए हैं। यज्ञ के लिए घृत, समिधाओं व यज्ञ सामग्री का प्रबन्ध वह कर चुके हैं। अतिथियों के लिए भोजन की सामग्री आदि की कुछ अन्य व्यवस्थायें भी उन्हें अभी सम्पन्न करनी हैं। उत्सव में देश व स्थानीय स्तर से अधिक से अधिक लोग आयें इसके लिए वह प्रतिदिन प्रातः 6.00 बजे ही निकल पड़ते हैं और आर्यसमाजों से जुड़े प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के घर जाकर उसे निमंत्रण पत्र देने के साथ आग्रह करते हैं कि वह तीनों दिन उत्सव में अवश्य पधारें। सभी स्थानीय व बाह्य स्थानों से आने वाले ऋषि भक्तों को डाक से भी निमंत्रण पत्र भेजे जा चुके हैं। हम इस गुरुकुल की स्थापना के आरम्भ से ही जुड़े हुए हैं। हमारा देहरादून में जिन आर्य व अन्य मित्रों से सम्पर्क था, उन सभी को गुरुकुल व इसके उत्सवों से जोड़ने का प्रयास किया गया है। पूरे देहरादून में फैले हुए सभी मित्रों के निवास पर डा. धनंजय जी व हम जातें हैं और उन्हें गुरुकुल पहुंचने की प्रार्थना करते हैं। इसका अच्छा परिणाम होता है। हमारे अतिरिक्त भी आचार्य जी अकेले भी प्रत्येक दिन एक सूची बनाकर अन्य अनेक ऋषिभक्त एवं गुरुकुल प्रेमियों के निवास पर पहुंच कर उन्हें गुरुकुल के उत्सव में आने के लिए प्रेरित करते रहते हैं।

तीन दिवसीय गुरुकुल के उत्सव के आयोजन में सामवेद पारायण यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। गुरुकुल में इस अवसर पर 29 मई, 2017 से बृहस्पतिवार 1 जून, 2017 तक एक स्वाध्याय शिविर का आयोजन भी किया जा रहा है। इस शिविर में ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का विशेष रूप से स्वाध्याय व अध्ययन सम्पन्न कराने का प्रयास किया जायेगा। इस शिविर के अध्यक्ष, शिक्षक व व्याख्याता डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई है। डा. सोमदेव शास्त्री जी का गुरुकुल के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी व इस गुरुकुल से विशेष प्रेम है। यही कारण है कि वह दूरस्थ मुम्बई से प्रत्येक वर्ष यहां पधारते हैं। आप यहां स्वाध्याय शिविर सहित यज्ञ के ब्रह्मा बन कर यज्ञ सम्पन्न कराते हैं और अनेक विषयों पर प्रभावशाली उपदेश व व्याख्यानों से ऋषिभक्तों की सेवा करते हैं। उत्सव के ही अवसर पर सार्वदेशिक आर्यवीर दल प्रशिक्षण शिविर का आयोजन 5 जून से 20 जून, 2017 तक सम्पन्न किया जायेगा जिसे स्वामी देवव्रत सरस्वती जी सम्पन्न करायेंगे। यह भी बता दें इस वर्ष उत्सव में अनेक विद्वानों को आमंत्रित किया गया है। प्रमुख विद्वान हैं स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, आचार्य बालकृष्ण, पतंजलि योगपीठ, डा. सूर्यादेवी चतुर्वेदा, डा. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, स्वामी श्रद्धानन्द, डा. रघुवीर वेदालंकार, डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, प्रो. महावीर, डा. धर्मेन्द्र कुमार शास्त्री, आर्यकवि सारस्वत मोहन मनीषी, श्री धर्मपाल आर्य, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, पं. धर्मपाल शास्त्री, श्री वीरेन्द्र शास्त्री, श्री रविदेव गुप्ता।  भजनोपदेशकों में श्री ओम प्रकाश वर्मा, यमुनानगर, पं. सत्यपाल पथिक जी, पं. सत्यपाल सरल एवं पं. कुलदीप आर्य जी आदि पधार रहे हैं। जो बन्धु उत्सव में आना चाहें वह आने से पूर्व अपनी किसी भी शंका व मार्गदर्शन के लिए दूरभाष संख्या 09411106104, 8810005096 तथा 9411310530 में से किसी एक फोन नं. पर सम्पर्क कर सहायता प्राप्त कर सकते हैं जिससे उन्हें असुविधा न हो।

इस उत्सव को सफल बनाने के लिए कल 21 मई, 2017 को हम आचार्य धनंजय जी के साथ अपने अनेक मित्रों के निवास स्थानों पर उन्हें उत्सव में आमंत्रित करने के लिए गये। हमारे अधिकांश मित्र 60 व उससे अधिक आयु वर्ग के हैं। यहां हम दो मित्रों का उल्लेख करना चाहते हैं। पहले मुख्य व्यक्ति श्री चण्डी प्रसाद शर्मा जी हैं जो देहरादून के मोहेब्बेवाला क्षेत्र में रहते हैं। आयु 86 वर्ष है। ऋषि दयानन्द से अपने विद्यार्थी जीवन से ही गहराई से जुड़े हैं। आपने वेद भाष्य सहित ऋषि के सभी ग्रन्थों का अनेक बार अध्ययन किया है। इसके साथ ही आपने समस्त आर्य साहित्य को भी बहुत दत्तचित्त होकर श्रद्धा के साथ पढ़ा है। आप किसी आर्यसमाज के सदस्य नहीं हैं और न ही आर्यसमाज के अधिकारियों को उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का परिचय ही है। कभी कोई उनसे मिलता भी नहीं है। आचार्य जी और हम भी गुरुकुल के उत्सव से कुछ दिन पहले ही उनसे जाकर मिलते हैं और वार्तालाप करते हैं। दो वर्ष पूर्व हमारे निवेदन पर वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून ने उनका अभिनन्दन किया है। हमें याद है कि इसके लिए हम बहुत मुश्किल से उन्हें मना पाये थे। हमने यह भी अनुभव किया है कि आर्यसमाजों में कई बार इतने अधिक वक्ता हो जाते हैं कि हम अभिनन्दन किये जाने वाले मुख्य अतिथियों को भी अपनी बात कहने का यथोचित समय नहीं दे पाते। मुख्य-मुख्य विद्वानों के उपदेश का समय बाद में रखा जाता है और तब तक समय व्यतीत हो जाने पर उन्हें कहा जाता है कि वह अपनी बात पांच या दस मिनट में पूरी कर लें। आरम्भ में जो वक्ता व भजनोदपेशक आदि बोलते हैं वह लाभ में रहते हैं और पर्याप्त समय लेते हैं। विगत वर्ष से गुरुकुल में इस परिपाटी को थोड़ा बदला गया है। अब यहां मुख्य वक्ताओं को पहले बोलने का समय दिया जाता है और बाद में शेष वक्ताओं को। गुरुकुल के आचार्य जी ने विगत वर्ष इस परिपाटी को गुरुकुल में क्रियान्वित कर अनुभव किया कि उनका यह प्रयास सफल रहा व आयोजन में पधारे शीर्ष विद्वान अपनी बातें सन्तोषपूर्वक श्रोताओं तक पहुंचा सके थे। श्री चण्डी प्रसाद शर्मा जी का सारा समय सन्ध्या, यज्ञ, स्वाध्याय, साधना आदि में ही व्यतीत होता है। वह वेदों का अनेक बार स्वाध्याय कर चुके हैं। ऋषि दयानन्द में उनकी अटूट भक्ति है। कल भी वह कह रहे थे कि वह अपने जीवन में पूर्ण सन्तुष्ट हैं और उनका जीवन आनन्द से सराबोर है। इसका कारण ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ और वैदिक सिद्धान्त व उनका आचरण ही है। हमने श्री शर्मा जी के विषय में यह भी अनुभव किया है कि उनका प्रत्येक आचरण वैदिक सिद्धान्तों के सर्वथा अनुरूप है। वेद व आर्य मर्यादाओं के विपरीत वह कोई कार्य नहीं करते। गुरुकुल के कार्यों के लिए उन्होंने सहयोग के लिए धनदान भी किया। अतिथि सत्कार का भी वह ध्यान रखते हैं। उनकी इच्छा अपने जीवन में ‘जीवेम शरदः शतं, अदीनाः स्याम शरदः शमं’ को सार्थक करने की है। इस अवसर का आचार्य धनंजय जी के साथएक चित्र सहित अन्य कुछ चित्र भी दे रहे हैं।

दूसरे मित्र जिनका हम उल्लेख कर रहे हैं वह श्री विनय मोहन सोती जी हैं। आयु के 86 वर्ष पूर्ण कर रहे हैं। इसी वर्ष के आरम्भ में उनकी धर्मपत्नी जी का देहान्त हुआ है। एक बार आप व आपकी धर्मपत्नी जी हमारे साथ टंकारा सहित द्वारका व सोमनाथ आदि स्थानों की यात्रायें कर चुके हैं। आप ऋषि भक्त हैं। सन्ध्योपासना नियमित रूप से करते हैं। जब तक स्वस्थ व सुगमता पूर्वक चलते फिरते रहे, आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के सत्संगों में जाते रहे।  अब वार्धक्य एवं शारीरिक दुर्बलता के कारण कुछ समय से सत्संगों में नहीं जा पा रहे हैं। आपने देहरादून के स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम को भी अपनी सेवायें दी हैं। वर्षों पूर्व देहरादून आर्यसमाज में एक अपंग ऋषिभक्त श्री संसार सिंह रावत रहते थे। आप ऋषि भक्त थे और विद्यार्थियों को निःशुल्क अनेक विषय पढ़ाते थे। हमारे साथ कार्य करने वाले एक वरिष्ठ वैज्ञानिक श्री एम.के. खन्ना ने हमें बताया था कि वह भी श्री संसार सिंह रावत जी के शिष्य रहे। श्री सोती जी को हमने अनेक बार देखा कि वह श्री रावत जी के लिए भोजन बनवाकर ले जाया करते थे। ऐसा और अनेक लोग भी करते थे। श्री रावत के जीवन का दुःखद प्रसंग यह था कि वह आर्यसमाज के तिकड़मबाज नेताओं का विरोध करते थे जिस कारण अधिकरियों ने उन्हें जीवन भर पीड़ित किया और मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व आर्यसमाज से उनका सामान उठवा कर फेंक दिया था और उन्हें निकाल दिया था। अब वह इस संसार में नहीं हैं। आर्य भजनोपदेशक श्री ओम्प्रकाश वर्मा, यमुना नगर उनसे विशेष प्रभावित थे और जहां जहां आर्यसमाजों में जाते थे, श्री संसारसिंह रावत की ऋषि भक्ति के उदाहरण प्रस्तुत करते थे। हमने 15-20 वर्ष पूर्व अनेक बार श्री विनय मोहन सोती जी के निवास पर यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन भी किया था। उनका अब भी आर्यसमाज व इसके कार्यों में उत्साह बरकरार है। आपने आचार्य जी को दान भी किया और कहा कि वह अपने पुत्र के साथ गुरुकुल अवश्य आयेंगे। उनका यह उत्साह हम लोगों को विशेष प्रेरणा प्रदान करता है। आचार्य धनंजय जी के साथ कल 21 मई को लिये गये उनके कुछ चित्र भी अवलोकनार्थ दे रहे हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
ओ३म्
‘जो मनुष्य हाथो से हिंसा करता है उन लोगों को ईश्वर अगले जन्मों में हाथ नहीं देता: विदुषी आचार्या डा. अन्नपूर्णा’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
विगत दिनों देहरादून में आर्यसमाज की प्रसिद्ध संस्था वैदिक साधन आश्रम तपोवन का पांच दिवसीय ग्रीष्मोत्सव सम्पन्न हुआ। हम यहां आश्रम के 14 मई 2017 को समापन दिवस समारोह में द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी का सम्बोधन प्रस्तुत कर रहे हैं। इस समारोह के मुख्य अतिथि देहरादून के बीजेपी विधायक श्री उमेश शर्मा ‘काऊ’ थे। उन्होंने आश्रम के अधूरों कार्यों को पूर्ण करने के लिए 10 लाख रुपयों से अधिक की धनराशि दान दी। उनका इस अवसर पर अभिनन्दन किया गया। स्वागत भाषण आश्रम के यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने दिया। उनका वह सम्बोधन और मुख्य अतिथि का सन्देश भी हम इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं। पहले डा. अन्नपूर्णा जी का सम्बोधन प्रस्तुत हैं।

द्रोण स्थली कन्या गुरुकुल की आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि वैदिक साधन आश्रम तपोवन के भव्य ग्रीष्मोत्सव को देखकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। यहां विगत कई दिनों से मुख्य वक्ता एवं भजनोपदेशक अपने उपदेशों से ज्ञान की गंगा प्रवाहित कर रहे हैं। आप यहां बह रही ज्ञान गंगा में डुबकी लगायेंगे तो भविष्य में होने वाले पापों से बच सकेंगे। संसार में शुद्ध ज्ञान वेद, उपनिषद, दर्शन आदि प्राचीन ग्रन्थों में ही मिलता है। यही वस्तुतः विद्या के ग्रन्थ होने से मानवमात्र के धर्म ग्रन्थ हैं। वेद ने कहा हे कि परमेश्वर विष्णु है। विष्णु इस लिए कहा कि ईश्वर सर्वव्यापक है। जो सर्वव्यापक न हो वह एकदेशी होने से विष्णु नहीं होता। परमेश्वर सर्वव्यापक होने से संसार के कण-कण में व्याप्त है। वेद कहते हैं कि उस सर्वव्यापक विष्णु परमेश्वर के कर्मों को देखों और उसकी महिमा का अनुभव कर उसकी उपासना करो। विदुषी आचार्या ने शरीर की विषिष्ट रचना का उल्लेख किया और कहा कि हमें अपने शरीर के अंगों में ईश्वर की उस विद्या के दर्शन करने चाहिये जिसका प्रयोग कर उसने हमारे सभी अंग, प्रत्यंग एवं शरीर को बनाया है। ईश्वर सभी मनुष्यों को उनके प्रत्येक कर्म का यथोचित फल देता है। डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि वेदों व ऋषि ग्रन्थों का अध्ययन करने से आपको कर्तव्य बोध होगा। उन्होंने कहा कि ईश्वर अपने व्रतों में बंधा हुआ है। ईश्वर सत्कार्यों में दान देने वाले सच्चे दानियों का कल्याण करता है। वेद का अध्ययन करने से हमें अच्छे कर्मों को करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। कर्मों की विचित्रता के कारण ही सृष्टि में विचित्रता है। जो मनुष्य जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है। हमें शुभ करने हैं जिससे ईश्वर हमारा कल्याण करें। ईश्वर ही निश्चित रूप से सभी मनुष्यों व प्राणियों का एकमात्र सखा है। उन्होंने कहा कि सुख का मूल धर्म अर्थात् वैदिक धर्म का पालन करना है। विदुषी आचार्या ने कहा कि महाभारत में शिक्षा दी गई है कि धर्म को सुनों व उसे जीवन में धारण करें। तुम्हें जो बुरा लगता है वैसा आचरण दूसरों के प्रति न करो। दूसरों के प्रति उन्हें अप्रिय लगने वाला आचरण न करना ही धर्म है। यदि तुम अपने लिए अच्छा अर्थात् सुख चाहते हो तो अच्छे काम करो। डा. अन्नपूर्णा ने कहा कि यदि आतंकवादियों को वेदों का ज्ञान होता तो वह आतंकी न बनते। उन्होंने कहा कि यदि मनुष्य ईश्वर को स्मरण रखेंगे तो उनके सभी काम अच्छे होंगे। उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई मनुष्य हिंसा करेगा तो ईश्वर उसको अगले जन्म में हाथ नहीं देगा। जो मनुष्य वाणी का दुरुपयोग करेगा उसके अगले जन्म में बोलने के लिए वाणी नही मिलेगी जैसा कि पशुओं को मनुष्यों की तरह बोलने की सुविधा नहीं है। जो मनुष्य मनन व चिन्तन करता है और सत्य का निर्णय कर सत्य का आचरण करता है, वही मनुष्य होता है। विदुषी आचार्या डा. अन्नपूर्णा ने कहा कि हम सत्य का आचरण करें जिससे ईश्वर हमारा सखा बन जाये। यही सामवेद का सार है। इसी के साथ डा. अन्नपूर्णा जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया।

मुख्य अतिथि श्री उमेश शर्मा ‘काऊ’ के स्वागत में आश्रम के मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने कहा कि श्री उमेश शर्मा काऊ, वर्तमान बीजेपी विधायक, देहरादून के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। वह देहरादून के डिपूटी मेयर रह चुके हैं। उनके क्षेत्र का हर व्यक्ति उन्हें अपना मानता है। उनके निवास पर प्रातःकाल से ही उनके क्षेत्रवासियों की अपनी शिकायतों के निवारण के लिए लाइनें लग जाती हैं। श्री उमेश शर्मा जी सभी शिकायतकर्ताओं की शिकायतों का शीघ्र निवारण करते हैं। आज उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में अपने बीच पाकर और उन्हें सम्मानित करके हम स्वयं को भी गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। मैं वैदिक साधन आश्रम तपोवन और अपनी ओर से उनका अभिनन्दन करता हूं। मुख्य अतिथि श्री उमेश शर्मा जी ने आश्रम के परिसर के अन्दर पथ निर्माण के लिए लगभग 3.00 लाख रुपये के व्यय की आर्थिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया है। आश्रम द्वारा निर्माणाधीन भवन ‘आरोग्य धाम’ का कार्य अधूरा है। इसे पूरा करने के लिए भी आपने आश्रम को रू. 9,99,999.00 का आर्थिक सहयोग करने का वचन दिया है। आश्रम के मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा ने मुख्य अतिथि को अवगत कराते हुए कहा कि आश्रम द्वारा संचालित जूनियर हाई स्कूल तपोवन विद्या निकेतन के सामने ही वैल्डिंग की कई दुकानें हैं। यहां सारा दिन शोर शराबा होता रहता है जिससे हमारे विद्यालय के बच्चों के अध्ययन व पढ़ाई में बाधा आती है। मंत्री जी ने मुख्य अतिथि से निवेदन किया कि वह इन दुकानों को कहीं अन्यत्र शिफ्ट करायें व अन्य उपाय करें जिससे स्कूल समय में बच्चों की पढ़ाई में बाधा न हो।

मुख्य अतिथि श्री उमेश शर्मा ‘काऊ’ ने अपने सम्बोघन में कहा कि आप मुझे समय-समय पर आश्रम के कार्यक्रमों में आमंत्रित करते रहते हैं। यहां आयोजित होने वाले शिविरों में भी मुझे आमंत्रित कर मेरा सम्मान करते हैं। इसके लिए मैं आपका आभारी हूं और आपका धन्यवाद करता हूं। मुख्य अतिथि महोदय ने कहा कि आश्रम के सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यों का वर्णन नहीं किया जा सकता। आप लोग वैदिक धर्मी हिन्दू समाज की जागरुकता सहित देश एवं समाज सुधार के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। मुख्य अतिथि जी ने आश्रम के अधिकारियों व आश्रम प्रेमियों सहित कार्यक्रम में उपस्थित सभी बहिनों का आभार व्यक्त कर उनका धन्यवाद किया। आश्रम में निर्माणाधीन ‘‘आरोग्य धाम” का उल्लेख कर आपने इसके जनकल्याण रूपी उद्देश्य की सराहना की। आश्रम के निकटवर्ती लोगों के कल्याण की भावना के लिए आश्रम के योगदान व सेवाभावना की वृति का मुख्य अतिथि महोदय द्वारा स्वागत किया और संस्था की प्रशंसा की। सभी सन्यासियों को मुख्य अतिथि जी ने नमन किया। आश्रम में पधारे सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करने सहित उनके लिए गहरे आदर भाव को प्रदर्शित किया। यह आश्रम उनके क्षेत्र में है, इसके लिए भी उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आभार व्यक्त किया। मुख्य अतिथि श्री उमेश शर्मा जी ने कहा कि जब कभी किसी रूप में भी आश्रम को उनकी किसी प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता हो तो आश्रमाधिकारी उन्हें निर्देश करें। वह उसे अवश्य पूरा करेंगे। इसके बाद हम आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी और श्री उमेश चन्द्र जी कुलश्रेष्ठ के सम्बोधन भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001

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