ग़ज़ल

रचनाकार - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'


 ग़ज़ल
सूरज आग उगलने लगा है
पात पात अब जलने लगा है
गर्मी गुस्सा बन कर फूटी
मौसम आज बिफरने लगा है
तस पानी की बढ़गई इतनी
भोजन आज बिसरने लगा है
सर से पैर तक बहे पसीना
झरना जैसे झरने लगा है
व्यग्र पहिचाने उसको कैसे
जो बाँध दुपट्टा चलने लगा है
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              माँ
         ~~~~~~
कभी वो हाथ
सुकोमल से
फैरती थी
मेरे सर पर
तो मैं कहता
माँ ! क्यूँ बिगाड़ती हो मेरे बाल
समझ नहीं पाता था
उसके भाव
पर, आज वो ही हाथ
सूखकर पिंजर हो गये
अब मैं चाहता हूँ
वो मेरे सर पर
फिर से फैरे हाथ
चाहे मेरे बाल
क्यों ना बिगड़ जायें
बस, ये ही तो अंतर है
बालपन में
और आज की समझ में |
पर अब माँ
बिगाड़ना नहीं चाहती
सरके बाल
वो चाहती है
मैं ,बैठूँ उसके पास
देना नहीं, लेना चाहती
मेरा हाथ अपने हाथ में
बिताना चाहती है कुछपल
बतियाना चाहती मुझसे,
पा लेना चाहती है,
      अनमोल निधि जैसे...
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          ग़ज़ल
   जिन्दगी जाने लगी अब तो समझ
हड्डियां   गाने लगी अब तो समझ
कब-तलक करता रहेगा अनदेखी
शक़्ल चिढ़ाने लगी अब तो समझ
बाल पककर अब तेरे झड़ने लगे
पतझड़ आने लगी अब तो समझ
ना सुहाता दुनियां का सौन्दर्य अब
आँख जतलाने लगी अब तो समझ
नाम कोरा व्यग्र रखकर क्या किया
समझ समझाने लगी अब तो समझ
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     परिचय :-
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-विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
जन्म तिथि :-01/01/1965
    पता-कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी ,         स.मा.(राज.)322201
मोबाइल-9549165579
विधा - कविता, गजल , दोहे, लघुकथा,
           व्यंग्य-लेख आदि
सम्प्रति - शिक्षक (शिक्षा-विभाग)
प्रकाशन - कश्मीर-व्यथा(खण्ड-काव्य) एवं मधुमती, दृष्टिकोण, अनन्तिम, राष्ट्रधर्म, शाश्वत सृजन, जयविजय, गति, पाथेय कण, प्रदेश प्रवाह, सुसंभाव्य, शिविरा पत्रिका, प्रयास, शब्दप्रवाह, दैनिक नवज्योति आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित |
प्रसारण - आकाशवाणी-केन्द्र स. मा. से
           कविता, कहानियों का प्रसारण ।
सम्मान - विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मान प्राप्त |
चलभाष -9549165579
ईमेल :-vishwambharvyagra@gmail.com

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