लेखक - डॉ वेद व्यथित
भारतीय दर्शन का मूल स्वर
विश्व साहित्य का महानतम और अद्भुत ग्रन्थ महाभारत और उस का अंश श्रीमद्भगवद्गीता का मूल स्वर ही धर्म है। धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश। धर्म ही व्यक्ति के जीवन का आधार है वही जीवन का केंद्र है वही समाज का नियन्ता और नियामक है राजनीति का नियंत्रण करता है और विश्व शन्ति का आधार भी है। विश्व का सब से बड़ा युद्ध धर्म के लिए ही था जीवन के प्रत्येक अंग के लिए धर्म आवश्यक है और यही जीवन का मूल मन्त्र है सभी के लिए अपना धर्म पालन करना अनिवार्य है यदि यह हो जाएगा तो पृथ्वी ही स्वर्ग बन जाएगी अन्य किसी स्वर्ग की कल्पना भी व्यर्थ हो जाएगी।
भारत में जब भी कहीं धर्म की चर्चा होती है तो तुरन्त धर्म निरपेक्षवादी अपना झंडा डंडा ले कर धर्म के विरूद्ध खड़े हो जाते हैं। जबकि इस देश का स्वत्व, इस देश का कण -कण धर्म से अनुप्राणित व परिपूर्ण है तो क्या धर्म को इस देश से, समाज से ,व्यक्ति से कैसे पृथक किया जा सकता है? नही कदापि नही , परन्तु इस का एक कारण धर्म में आईं कुरीतीयां और बहुत से आडम्बर जो अज्ञानता के कारण धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो गए हैं उन के द्वारा फैलाया गया भ्रम धर्म को अधर्म के स्तर पर भी ले जाने का कुचक्र कुछ लोग इस देश में निरन्तर कर रहे हैं जिस में देश तथा कथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया है इतना ही नही महात्मा गाँधी जैसे महान विचारक का कथन भी आश्चर्य चकित करने वाला है 'न तो महाभारत का युद्ध हुआ न ही गीता युद्ध में प्रेरणा देने वाला ग्रन्थ है। '-श्रीमद्भगवद्गीता सरल सुबोध भाषा भाष्य पृ ० 6
अर्जुन का यह अधर्म स्वतन्त्रता के समय भी हमे खूब देखने को मिला उस समय जैसा अर्जुन के मन में भय व्याप्त हो रहा था और वह युद्ध से विमुख हो रहा था उस समय 'अर्जुन की विकृति युधिष्ठिर के मन की अवस्था से भिन्न थी। इस का परिणाम कुछ वैसा ही होने वाला था जैसा १९२२ में चौरी चौरा की घटना के समय घोषणा से हुआ था। अर्जुन की मानसिक विकृति कृष्ण ने गीता के प्रवचन से दूर कर दी थी ;परन्तु गांधी जी को समझने वाला कोई कृष्ण उन के समीप था ही नही। परिणाम स्पष्ट है गांधी के १९२१ से १९४७ तक के अहिंसात्मक आंदोलन के परिणाम स्वरूप एक संयुक्त सुदृढ़ और महान देश बनने के स्थान पर विभक्त हो गया। यह पाकिस्तान और भारत दो भागों में बंट गया ;भारत एक संयुक्त राज्य (फैडरल स्टेट )बना तथा इस में राष्ट्रीयता के स्थान पर राष्ट्रीयता का व्यापक प्रभाव हुआ।(पृ १७ श्रीमद भगवद्गीता एक अध्ययन ) यह सब अर्जुन की अहिंसावादी धर्म नीति ही थी जिसे विभाजन के लिए गाँधी जी गीता की अनुचित व्यख्या कर के की।
इसी प्रकार धर्म का नाम आते ही कथा कीर्तन ,जागरण आदि जन सामान्य के मस्तिष्क में उभरने लगता है परन्तु वास्तव में ये पूजा पद्धतियां है धर्म नही हैं। आज नई पीढ़ी भी इसे ही धर्म मान कर अपना माथा झुक कर मन: कामना की पूर्ति कर रही है। वास्तव में तो जन सामान्य में धर्म की समझ विकसित करने में इस देश की मनीषा की ही चूक रही है। उस ने जन सामान्य में जो धर्म की समझ थी वह भी दूषित कर दी जब कि भारत वर्ष में निरक्षर व्यक्ति भी अपने बचपन में ही माँ की गोद में ही महाभारत और रामायण सुन लेता था और धर्म सीख लेता था और उस का ही जीवन भर निर्वहन करता था अनुसार आचरण करना अपना कर्तव्य समझता था परन्तु तथाकथित बुद्धिजीवियों , धर्मनिरपेक्ष विचारकों ने और आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने धर्म के वास्तविक रूप को जो हानि पहुंचाई उस से न केवल राजनीति दूषित हुई और पुंश्चली रूप में स्थापित हुई अपितु समाज में उच्छृंखलता और विद्रूपों की बाढ़ आ गई जिस का परिणाम आज हमारे समक्ष है। राजनीती से धर्म दूर क्या हुआ देश विनाश की और बढ़ने लगा राजनीति मत पन्थों से दूर होने के बजाय उन के निकट आई जैसे इफ्तार की दावतों का राजनीतिकरण हुआ परन्तु मत पन्थों के स्थान पर धर्म से ही दूर होती गई और अपने अनुयायियों को भी यही पाठ पढने में लगी है।
इतिहास अपने आप को दोहराता है। अर्जुन ने जिस प्रकार अधर्म के समक्ष समर्पण का प्रयत्न किया वर्तमान में भी वह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। आज यही नीति नियन्ता राष्ट्र धर्म को त्याग कर अधर्म का समर्थन करने में जुटे हैं इसी लिए देश के प्रधान सेवक को कहना पड़ा कि सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं वे भी सार्वजनिक रूप से नोट बन्दी के विरोध का साहस कर रहे हैं जैसे अर्जुन अपने धर्म को त्याग कर अधर्म का समर्थन कर के धर्म के राज्य की धार्मिक समाज की कोरी कल्पना श्री कृष्ण के समक्ष प्रस्तुत करता है। वास्तविकता तो यही है कि हम अपने बचाव में कितने ही कुतर्क गढ़ लेते हैं परन्तु धर्म का पालन कठिन होता है उस में व्यक्तिगत लाभ लोभ मोह आदि से ऊपर उठ कर जीवन जीना पड़ता है इस लिए व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए अर्जुन की भांति कुतर्क गढ़ते हैं।
निहत्य हन्तुमिच्छामि धनतोअपि मधुसूदन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्यिताना ततायिन :
हे जनार्दन !धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार कर भी हमे प्रसन्नता नही होगी। इन आततायियों को मार कर तो हमे पाप ही मिलेगा। अब ये देखिये एक तरफ तो वह धृतराष्ट्र के पुत्रों को आततायी कह रहा है परन्तु उन्हें मारने से पाप लगने का डर भी बता रहा है। परन्तु धर्मानुसार तो आततायियों का वध करना ही श्रेयस्कर है और वह उन आतताइयों न मार कर अपने धर्म से च्युत हो कर पलायन वृति अपना कर उन आततायियों के रहते धर्म बना रहेगा ऐसी अपेक्षा भी कर रहा है। उन आततायियों से जिन्होंने नारी के शील तक को हरण करने का पूरा प्रयास किया है। तो वे कौन सा धर्म स्थापित करेंगे और अब कौन सा धर्म शेष रह गया है परन्तु अर्जुन अपने ही धर्म को छोड़ कर पलायन करना चाहता है।
यहीं से धर्म का विषय शुरू होता है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है ? क्या अर्जुन के कुतर्क धर्म है जो आज तथा कथित बुद्धिजीवी समाज भारत के प्रति भारतीय संस्कृति के प्रति और भारतीय मूल्यों के प्रति अपना है या इन सब का प्रतिकार धर्म है ? क्या आततायियों यानि आंतकियों के दण्ड का समर्थन करने के बजाय उन के बचाव में विभिन्न प्रकार के कारनामे करना यानि आततायियों के पक्ष में न्यायालय पर दबाब बनाना उन के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चलाना उन के पक्ष में सम्मेलन करना गोष्ठियाँ करना विभिन्न प्रकार के देश की रक्षा के विरुद्ध और जन सामान्य की रक्षा के विरुद्ध मानवतावाद के नाम पर कुतर्क गढ़ना और आतंकियों से सहानुभूति रखना कौन सा धर्म है या यह अधर्म है। यहां पर शक्ति का प्रयोग ही धर्म है शक्ति से ही धर्म की रक्षा सम्भव है पलायन वृति से नही है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण :परधर्मात्स्वनुष्ठितात।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: . अध्याय ३ श्लोक ३५
अर्थात अपना धर्म गुण रहित होते हुए भी भलीभांति पालन किया हुआ दूसरे के धर्म से श्रेठ होता है। अपने धर्म में मरणा श्रेठ है और दूसरे के धर्म में जीना तो भय का कारण है। परन्तु वर्तमान में अर्जुन की पलायन वृति ही चंहुओर दिखई देती है। कहीं कुछ भी हो हम आँख मूँद कर आगे बढ़ जाते हैं अपना हित ही सर्वोपरि हो चूका है। समाज और राष्ट्र सब गौण हो चुके है पहले निजी स्वार्थ बाद में धर्म , समाज व राष्ट्र हो गया है तो क्या यह परिदृश्य उचित है क्या श्री मद्भगवद्गीता से बढ़ कर भी कहीं और कुछ सीखा जा सकता है क्या हम कुछ सीख पाएं हैं समाज की उच्छ्रिख्लताएं हमारे समक्ष हमारे द्वारा और हमारे अपनों द्वारा उत्पन्न हो रही हैं। पर हम मूक दर्शक बने हैं। हम घर से निकल कर विरोध स्वरूप भी बाहर नही आ सकते हैं. देहली में एक होनहार डॉक्टर को गुंडे उस के मोहल्ले में आ कर मार गये लोगों ने कुंडियां लगा ली और बेशर्मी तो यह कि वहां से वोट का लाभ न होने के कारण कुछ धूर्त नेता तक वहां नही गए जब की वे ही आतंकियों के लिए दिन रात एक किये रहते हैं जिस का परिणाम आज दौपदी की भांति ही स्त्रियों का शील हरण स्थान स्थान पर मूक दर्शक बन कर भीष्म और अन्य महारथियों की भांति हम देख रहे हैं। जब की श्री कृष्ण इसी लिए ललकारते हैं :
क्लैव्यम मा स्म गम:पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रम हृदयदौर्बललयम तवक्तवोत्तिष्ठ परन्तप। अध्याय २ श्लोक ३
'पार्थ इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो। यह तुझ में उचित नही है। हे परन्तप !हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। 'हमारी यही सब प्रकार की दुर्बलताएँ ही परिवार समाज व राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। मेरा पुत्र दुर्योधन ही मुझे प्रिय है वह बेशक अधर्मी अनैतिक तथा दुष्ट प्रवृति का है तो भी मुझे प्रिय है तो फिर निश्चित उस का अंत करना ही धर्म का पालन करना है इस लिए अर्जुन को धर्म पालन के लिए प्रेरित करना ही स्वस्थ समाज की स्थापना है जिस में धर्म की जय हो श्रीमद्भगवद्गीता व श्रीकृष्ण जी का यही उद्देश्य है।
अर्जुन युद्ध से यानि अपने धर्म से भागना चाहता है जबकि युद्ध करना उस का धर्म पालन करना है जैसे सैनिक सीमा पर देश की रक्षा हेतु बलिदान देने से डर कर छुप जाये या शत्रु के आक्रांता सैनिक को हत्या का पाप लगने से न मारे और उसे छोड़ दे तो क्या देश और देशवासी सुरक्षित रह सकते हैं, कदापि नही। परन्तु उन की वीरता उर बलिदान पर भी हमारे धर्मनिरपेक्ष नेता या तथा कथित मानवाधिकार वादी जब विभिन्न प्रकार के प्रश्न करते हैं तो उन का भी वह राष्ट्र द्रोह नही तो और क्या है जो सेना पर ही शक कर रहे हैं वे क्या राष्ट्र धर्म का पालन कर रहे हैं ऐसे लोग राष्ट्र द्रोही दुर्योधन हैं और उन का नेतृत्व समाप्ति ही धर्म पालन होगा यही श्रीमद भगद्गीता का धर्म सन्देश है।
अब बात यह हैकि वह धर्म क्या है श्री कृष्ण भगवान कौन से धर्म पालन की बात अर्जुन से कह रहे हैं तो वह गीता तो है नही है क्योंकि गीता तो अभी कही जा रही है और तीसरे अध्याय में ही अर्जुन को स्व धर्म पालन की बात कह रहे हैं तो फिर क्या वे अर्जुन को भजन कीर्तन करने की बात कह रहे हैं या मत सम्प्रदायों के अनुसार धर्म की व्याख्या की बात कह रहे हैं, नही कह रहे हैं तो फिर कौन से धर्म धर्म का अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं। यह अति आवश्यक व विचारणीय प्रश्न है यदि इस पर विचार नही किया तो सभी कुछ व्यर्थ है इसी लिए श्री कृष्ण स्वयं महाभारत में आश्मेधिक पर्व में कहते हैं :
धर्मसारं महाप्राज्ञ मनुना प्रोकतमादित :
प्रवक्ष्यामि मनुप्रोक्त पुराणम ऋति संहितम। पृष्ट ६३६० गीता प्रेस का श्रीमद महाभारत खण्ड ६
अर्थात जो पुराने समय में महाराज मनु ने धर्म के लक्षण निश्चित किये हैं या धर्म का संविधान निर्मित किया है वही धर्म का आदर्श है। यह ही हमारे भारत राष्ट्र का धर्म विधान ही नही समाज का और राष्ट्र का भी संविधान है। लो जी महाराज मनु का नाम आ गया तो बस अब भूचाल आने वाला है महाराज मनु का नाम आते ही लोगों के माथे पर सलवटे पड़नी शुरू हो जाते हैं। परन्तु जितनी भ्रांतियां तथाकथित बुद्धिजीवियों ने या धर्मनिर्पेक्षतावादियों ने महाराज मनु और मनु स्मृति के विषय में उत्पन्न कर दीं हैं उन से निपटना महाभारत युद्ध से कम नही है जिस ने कभी मनु स्मृति देखि भी नही है वह भी मनुस्मृति से सर्वाधिक उदाहरण देता है और ऐसी २ मनघडन्त सुनी सुनाई व्याख्या और उदाहरण मनु स्मृति के बता कर षड्यन्त्र के अंतर्गत योजना पूर्वक इस देश की भावी पीढ़ी में फैलाने का कुचक्र लोग कर रहे हैं। इसे प्रारम्भ में जिस प्रकार विधर्मियों और विदेशी मतों ने कुचक्र के अंतर्गत फैलाया उसे ही नव बौद्धिक भी मनु विरोध का विभिन्न मोर्चा बना बना कर फ़ैलाने का षड्यन्त्र कर रहे हैं। वे यह सब राष्ट्र में विभ्रम और विभेद उतपन्न करने के लिए कर रहे हैं जो राष्ट्र के लिए भयावह और घातक है।
आखिर धर्म का पालन धर्म के शास्त्र के अनुसार ही होगा। इस के लिए कोई ऐरा गैर नही शास्त्र ही अंतिम प्रमाण कहे गए हैं ऐसा नियम बना हुआ है इन में हमारे वेद और मनु स्मृति ग्रन्थ हैं इस का प्रमाण भी श्री मद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय के अंतिम दो श्लोकों में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिया है
य:शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखम न प रां गतिम 1 २३
तस्माच्छास्त्रम प्रमाणम ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ .
ज्ञात्वा शास्त्रविध्नोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसी . 1 २४
इसी लिए इन का ही विरोध इस राष्ट्र को धर्म के विरुद्ध खड़ा करने में सफल हो रहा है। अत: धर्म की स्थापना हेतु सभी रागद्वेष , लाभ लोभ और निजी महत्वकांक्षाओं से ऊपर उठ कर अपने आप से और अपनों से युद्धरत होना ही पड़ेगा जो अनुचित व अनैतिक तथा राष्ट्र द्रोही हैं उन का प्रतिकार भी हमारा धर्म है और इस से पलायन नपुंसकता है। विचार आप के समक्ष है हम आने वाली पीढ़ियों को क्या सौंपना चाहते हैं धर्मयुक्त अनुशासित समाज या आततायियों का वर्चस्व , स्वयं निश्चित करना है।
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लेखक परिचय- डॉ वेद व्यथित
अनुकम्पा - 1577 सेक्टर 3 , फरीदाबाद -121004
फोन - 09868842688
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